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________________ पुक्खरवरदी सूत्र २९९ सिद्ध ऐसे जिनमत में प्रयत्नवाला मैं जिनमत को नमस्कार करता हूँ अर्थात् जिनमत के प्रति अत्यंत आदर और बहुमान के परिणाम को व्यक्त करने के लिए दो हाथ जोड़कर, मस्तक झुकाकर द्रव्य से नमस्कार की क्रिया करता हूँ और शास्त्र के एक-एक शब्द के जो भाव हैं, उन भावों के अनुरूप मेरी आत्मा को बनाने के प्रयत्न रूप भाव नमस्कार करता हूँ । श्रुत के प्रति प्रबल भक्ति ही पुनः पुनः साधक को नमस्कार करवाती है और जिनमतानुसार जीवन जीने की तीव्र भावना की वृद्धि करती है । यह पद बोलते वक्त विशिष्ट कोटि के श्रुतज्ञान तथा श्रुतज्ञान के सार को प्राप्त श्रुतधर महापुरुष को स्मृति में रखकर, श्रुत के लिए यत्नशील ऐसा मैं अत्यंत आदर पूर्वक ऐसे विशिष्ट श्रुतज्ञान को नमस्कार करता हूँ, वैसा भाव साधक को प्रकट होना चाहिए। तो ही यह पद बोलते हुए श्रुत के अवरोधक कर्म की निर्जरा हो सकती है ।। अब जिस जिनमत को नमस्कार किया, वह जिनमत कैसा है, वह बताते हुए कहते हैं नंदी सया संजमे - (जिनमत के कारण) संयमधर्म में सदा वृद्धि (होती) है। चारित्र धर्म की वृद्धि करना, श्रुत ज्ञान का महत्त्वपूर्ण कार्य है। इसीलिए योग्यात्माएँ शास्त्र का अध्ययन करके, वैराग्य को प्राप्त करके संयम जीवन को स्वीकार करती हैं । संयम स्वीकार करके समिति, गुप्तिवाले मुनि भगवंत आगम ग्रंथों का जैसे-जैसे अध्ययन करते हैं, वैसे-वैसे उनकी संयम विषयक प्रज्ञा विशद होती जाती है। उससे संयम के, समिति, गुप्ति के सूक्ष्म-सूक्ष्म भाव उनको दिखाई देते हैं और उन भावों के अनुरूप वे समिति-गुप्ति का उत्तरोत्तर विशिष्ट पालन करते हैं। जो संवर भाव को प्रकट करवाकर, कर्म की निर्जरा करवाकर अंत में मोक्ष तक पहुँचाने में कारण बन सकता है। इसीलिए श्रुतधर्म को चारित्र धर्म की वृद्धि का कारण कहा गया है ।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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