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सूत्र संवेदना - २
है, तब आत्मा में अनंतज्ञान का प्रकाश होता है, अनंत वीर्य प्रकट होता है, अनंत चारित्र प्राप्त होता है । उसके बाद योगनिरोध आदि की प्रक्रिया द्वारा बाकी रहे कर्मों का विनाश करके, आत्मा अपने पूर्ण आनंद और आरोग्य को प्राप्त करती है। तब वह अपने स्वाभाविक सुखमय - आनंदमय स्वरूप की अनुभूति करती है । इस प्रकार श्रुतज्ञान पूर्ण और विशाल अर्थात् अनंत सुख को प्राप्त करवानेवाला है
सुवैद्य की बताई हुई औषधि से रोग चला ही जाएगा, ऐसा जरूरी नहीं है । पुण्य हो तो जाए भी और पुण्य न हो तो न भी जाए । बल्कि कभी कभार तो यह औषधि दूसरी पीड़ाएँ भी उत्पन्न करती है, जब कि श्रुतज्ञान रूपी औषधि से भावरोग जरूर नष्ट होते हैं । यदि कर्म भारी हो तो कभी रोगमुक्ति में विलंब भी होता है, परन्तु फल तो मिलता ही है। इसके अलावा इस औषधि की कोई प्रतिकूल असर भी नहीं होती, इसलिए भाव आरोग्य के अर्थी को तो श्रुतज्ञान के बताए मार्ग पर आगे बढ़ना ही चाहिए । को देव-दानव नरिंद- गणयिस्स धम्मस्स सारमुवलब्भ करे पमायं ? देव, दानव और नरेन्द्रों के समूह भी जिसकी श्रद्धापूर्वक पूजा करते हैं, उस श्रुतधर्म के सार को प्राप्त करके कौन प्रमाद करें ? ( अर्थात् कोई भी न करें ) ।
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श्रुतज्ञान देवेन्द्रों, दानवेन्द्रों और नरेन्द्रों से पूजित है । विशिष्ट प्रज्ञावान पुरुष जिसे महान सुख का साधन मानते हैं, दुःखनाश का कारण मानकर पूजते हैं, वह श्रुतज्ञान कितना महान होगा । यह तो मात्र कल्पना का विषय है, ऐसे महान श्रुत के सार अर्थात् सामर्थ्य को जानकर कौन उसमें प्रमाद करेगा ? अर्थात् कोई नहीं करेगा ।
अनंतर
श्रुतज्ञान का अनंतर सामर्थ्य अज्ञान को हटाने का, मोह को पहचानने का और कर्मस्थिति का आभास करवाने का है और परंपर सामर्थ्य संयममार्ग में प्रवृत्ति करवाने के द्वारा मोक्ष तक पहुँचाने का है । इसलिए ही