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सूत्र संवेदना - २
तीसरी गाथा में 'यह श्रुतज्ञान संसार के सभी दुःखों का नाश करवाकर आत्मा को पूर्ण आरोग्य प्राप्त करवाता है ।' ऐसा बताकर सूत्रकार परमर्षि बताते हैं कि, देवेन्द्र और चकवर्ती से पूजे गए श्रुत के सामर्थ्य को जानकर कौन प्रमाद करें ? अर्थात् जिसने श्रुतज्ञान का महत्त्व समझा है, वैसी आत्माएँ तो इस श्रुतज्ञान की प्राप्ति में और तदनुसार आचरण में लेश मात्र भी प्रमाद या विलंब नहीं करतीं, यह बताया गया है ।
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चौथी गाथा में यह श्रुतज्ञान कितना विशाल है ? और वह किन गुणों की वृद्धि करता है, वगैरह बताकर श्रुतधर पुरुषों की साक्षी में श्रुतज्ञान को नमस्कार किया गया है और अंत में संयमधर्म की वृद्धि करनेवाले और विजयवंत ऐसे श्रुतधर्म की वृद्धि की आशंसा व्यक्त की है । उसके बाद श्रुतज्ञान की आराधना के निमित्त 'सुअस्स भगवओ करेमि काउस्सग्गं' बोलकर एक नवकार का कायोत्सर्ग किया जाता है । जो चैत्यवंदन का सातवाँ अधिकार है।
मूलसूत्र :
पुक्खरवर - दीवड्डे, धायइसंडे य जंबूदीवे य । भरहेरवय-विदेहे, धम्माइगरे नम॑सामि । । १ । ।
तम- तिमिर - पडल- विद्धंसणस्स, सुरगण नरिंद- महिअस्स । सीमाधरस्स वंदे, पप्फोडिय - मोहजालस्स ||२॥
जाइ - जरा - मरण - सोग - पणासणस्स,
कल्लाण- पुक्खल-विसाल - सुहावहस्स । को देव - दाणव- नरिंद - गणचियस्स, धम्मस्स सारमुवलब्भ करे पमायं ? || ३ || सिद्धे भो!!' पयओ णमो जिणमए नंदी सया संजमे । देवं नाग - सुवन्न- किन्नर - गण - सब्भूअ - भावचिए ।