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पुक्खरवरदी सूत्र
२७७ दुनिया के विचारक जीव ज्ञान के महत्त्व को समझते हैं । इसलिए वे स्कूल, कॉलेज़ वगैरह के माध्यम से ज्ञान के लिए अथक प्रयत्न करते हैं, लेकिन प्रयत्न से प्राप्त हुए, उस व्यावहारिक ज्ञान से उन्हें आत्मज्ञान नहीं होता । सच्चा सुख कहाँ है, वह उनकी समझ में नहीं आता। मात्र वैषयिक सुख कैसे प्राप्त करना, कैसे उसका भोग करना उसके साधन किस प्रकार प्राप्त करना और विषय-कषाय की संतुष्टि से होनेवाला मन का आनंद कैसे टिकाना यहीं मालूम पड़ता है, इसलिए उसे मिथ्याज्ञान कहते हैं ।
इस सूत्र में ऐसे मिथ्याज्ञान की स्तवना नहीं, परन्तु आत्मज्ञान प्राप्त करवाएँ, सर्व स्थिति में मन को स्वस्थ-प्रसन्न रखें, मात्र वर्तमान काल में ही नहीं, परन्तु अनंतकाल तक सुख को प्राप्त करवाएँ, वैसे सम्यग् श्रुतज्ञान की स्तवना की गई है ।
इस सूत्र में जिस प्रकार श्रुतज्ञान का महत्त्व बताया, उस महत्त्व को मन में स्थापित करके यदि श्रुतज्ञान को स्मरण में लाकर, श्रुतज्ञान की स्तवना की जाए, तो श्रुत के प्रति आदर बढ़ता जाता है और श्रुताध्ययन की भावना जागृत होती है । उस मार्ग में यथाशक्ति प्रयत्न शुरू होता है, जिससे ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है, उससे बुद्धि निर्मल होती है। निर्मल बनी बुद्धि, शास्त्र में रहे अलौकिक भावों का दर्शन करवाती है। जिससे अंतर आह्लादित होता है, झूठे विकल्प शांत हो जाते हैं, मन शांत हो जाता है, धर्म और शुक्लध्यान के मार्ग पर आत्मा आगे बढ़ती जाती है, फलतः घातिकर्म का नाश कर आत्मा अपने स्वरूप का दर्शन कर सकती है। इस प्रकार श्रुतज्ञान द्वारा क्रमिक विकास करती हुई आत्मा अंतिम मोक्ष तक पहुँच सकती है । ___ इस सूत्र की प्रथम गाथा में श्रुतज्ञान की स्तवना करने से पहले श्रुतज्ञान के उद्भव स्थानभूत अरिहंत परमात्मा की स्तवना की जाती है ।
दूसरी गाथा में अंतरंग दोषों को दूर करके श्रुतज्ञान किस प्रकार सद्गुणों का विकास करवाता है तथा उसकी बाह्य समृद्धि कैसी है, वह बताया है।