SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 293
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७२ सूत्र संवेदना - २ सामने रखकर ही समुद्र की श्रुत के साथ तुलना की गई है और उसके खराब पहलू का विचार करें तो उसमें आते आवर्त, बीच-बीच में रहे हुए पर्वत, मगरमच्छ, पानी का खारापन वगैरह समुद्र के दुर्गुण हैं । उस अपेक्षा से संसार को समुद्र की उपमा दी गई है, वह भी योग्य ही है । यह गाथा बोलते हुए विशालपट पर प्रसारित अति गहन आगमरूप समुद्र नजर के समक्ष आता है और यह देखकर साधक आनंदविभोर बनकर सोचता है, "मेरे परमपिता परमेश्वर मोक्ष में गए, पर मेरे लिए बहुत कमाई रखकर गए हैं। इस जगत् में सगी माँ या बाप भी जो कार्य न कर सके, वह कार्य मेरे प्रभु ने किया है । मुझे सुखी होना हो, तो मुझे एक ही कार्य करना है, इस आगमरुपी समुद्र में डूबकी मारने का, उसकी गहराई तक पहुँचने का, वहाँ रहे हुए रत्नों को निरखने का और उन रत्नों को लेकर उनके अनुसार जीवन जीने का । अगर मैं इतना करूँगा, तो जरूर इस संसार में भी सुख का अनुभव करके परंपरा से परमसुख के धाम तक पहुँच सकूँगा ।” अब चौथी गाथा में श्रुतदेवता को संसार के उच्छेद की प्रार्थना की गई है आमूलालोल-धूली-बहुल-परिमलाऽऽलीढ-लोलालिमाला झंकाराराव-सारामलदल-कमलागारभूमिनिवासे13 -मूल पर्यंत कुछ हिलने से झरते मकरंद की अत्यंत सुगंध में मग्न हुए चपल भ्रमर वृंद के 13.इस गाथा में देहि' क्रियापद है, भव-विरह-वरं कर्म है और उसकी प्रार्थना श्रुतदेवी से की गई है। उससे देवी को संबोधन किया गया है और (१) अमूलालोल-धूली-बहुल-परिमलाऽऽलीढ-लोलालिमाला-झंकाराराव-सारामलदलकमला गारभूमिनिवासे ! (२) छाया-संभार-सारे ! (३) वरकमल-करे ! (४) तार-हाराभिरामे ! (५) वाणी-संदोह-देहे !, ये पद देवी के विशेषण है ।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy