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संसारदावानल स्तुति
यह गाथा बोलते समय साधक देवेन्द्रों वगैरह से पूजे हुए प्रभु के चरणों को स्मृति पट पर स्थापित करके उनको अत्यंत भाव से नमस्कार करते हुए सोचता है कि,
“मेरे प्रभु के चरण भी कितने अद्भुत हैं कि, जिनको देवेन्द्र और नरेन्द्र भी नमन करते हैं और जो उनको नमन करते हैं, उनके मनोरथ पूर्ण भी होते हैं । मैं कितना भाग्यशाली हूँ कि मुझे ऐसे प्रभु मिलें । अब इन प्रभु के चरणों की उपासना करके मेरे जन्म को सार्थक करूँ ।”
चौबीस भगवान की स्तुति करके अब तीसरी गाथा में श्रुतज्ञान कहते हैं
हुए
करते
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की स्तुति
बोधागाधं, सुपद - पदवी - नीर पूराभिरामं ' - बोध से अगाध पदों की रचना रूप पानी के बाढ़ से मनोहर (ऐसे वीर प्रभु के आगम रूप समुद्र को मैं सेवता हूँ ।)
“वीर प्रभु का आगम सागर जैसा गंभीर है । सागर के तल तक पहुँचना सामान्य व्यक्ति के वश में नहीं है, मात्र कोई मरजिया (गोताखोर ) ही वहाँ तक पहुँच सकता है, वैसे ही आगम के एक-एक पद अनंत अर्थों से भरे हुए हैं, अनंत गम, पर्याय से युक्त है । सामान्य मनुष्य इसके मर्म को नहीं समझ सकता क्योंकि शास्त्र के प्रत्येक वचन को यथार्थ रूप से समझना, 6. इस गाथा में 'सेवे' क्रियापद है और वीरागम-जलनिधिं उसका कर्म है और
(१) बोधागाधं (२) सुपद-पदवी-नीर-पूराभिरामं
(३) जीवाहिंसाविरल-लहरी-संगमागाहदेहं
(४) चूला-वेलं (५) गुरुगम-मणी-संकुलं
(६) दूरपारं (७) सारं ये पद वीरागम-जलनिधिं के विशेषण है ।
7. बोध अर्थात् ज्ञान, उससे जो अगाध गहरा है वह बोधागाघं यह पद वीरागम-जलनिधिं का विशेषण होने से द्वितीया विभक्ति से जुड़ा हुआ है ।
8. सुष्ठु - पद सुंदर पद, वह सुपद । उसकी पदवी अर्थात् योग्य रचना, वह सुपद - पदवी । उस रूपी नीर अर्थात समूह से अभिराम मनोहर, वह सुपद - पदवी - नीर- पूराभिरामं - यह पद भी वीरप्रभु के आगमरूप समुद्र का विशेषण है ।