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सूत्र संवेदना - २
संमोह - धूली- हरणे - समीरं
मोहरूपी
धूल को दूर
माया- रसा-दारण-सार-सीरं,
मायारूपी पृथ्वी को जोतने के लिए उत्तम हल समान,
रे-सार- धीरं वीरं नमामि ॥ | १ ||
मेरु पर्वत जैसे धीर श्री वीरप्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ ।।१।। - सुर-द -दानव-मानवेन चूला-विलोल-कमलावलि-मालितानि;
भावावनाम -
(जो ) भाव से झुके सुरेन्द्र, दानवेन्द्र, मानवेन्द्र के मुकुट में रही चपल कमल की श्रेणी से पूजित है,
संपूरिताभिनत - लोक-समीहितानि,
गिरि
करने में पवन समान;
नमस्कार करनेवाले लोगों के मनोरथों को जिन्होंने अच्छी तरह पूर्ण किए हैं,
तानि - जिनराज - पदानि कामं नमामि ॥ २ ॥
उन जिनेश्वर के चरणों में मैं अत्यंत श्रद्धा से नमस्कार करता हूँ । । २ । । बोधागाधं, सुपद - पदवी-नीर - पूराभिरामं',
आगमरूपी समुद्र बोध से अत्यंत गंभीर है। और उनके पदों की रचना जलसमूह की तरह मन का हरण करे वैसी सुंदर है ।
जीवाहिंसाविरल-लहरी - संगमागाहदेहं ।
निरंतर आनेवाली जीवदया की बातें रूप लहरियों के संगम के कारण वह अगाध (विशाल) देहवाला है ।
चूला-वेलं, गुरुगम मणी संकुलं, दूरपारं,
चूलिकारूप वेलावाला' है, उत्तम और समान आलापकरुप मणियों से भरपूर है, जिसका पार पाना अत्यंत दुष्कर है ",