________________
भूमिका
समझ में आता है । इसके कारण ही उसे परमात्मा के प्रति अंतरंग प्रीति प्रकट होती है । सामान्य व्यक्ति के साथ की गई मैत्री या प्रीति भी यदि आनन्ददायक हो सकती है, तो तीन जगत् के नाथ, महाकरुणा के सागर, अनंत गुणों के मालिक परमात्मा के साथ की हुई प्रीति कितनी आनंददायक हो सकती है; वह तो जो माने वो ही जाने । इस प्रीति का आनंद जिन्होंने माना है वैसे पू. आनंदघनजी महाराज कहते हैं,
"ऋषभ जिनेश्वर प्रीतम म्हारो, और न चाहुं रे कंत,
रिझ्यो साहिब संग न परिहरे, भांगे सादि अनंत ।" हे ऋषभदेव प्रभु ! आप ही मेरे सच्चे प्रियतम हैं । अब इस दुनियाँ में मैं दूसरे किसी पति की इच्छा नहीं रखती क्योंकि अन्य पति का साथ कब छूट जाए यह पता नहीं । लेकिन हे स्वामी ! आप एकबार रीझो और मेरा-आप का संबंध बंध जाए, तो यह संबंध सादि अनंतकाल तक नहीं छूटे । जिससे वियोग
का दुःख मुझे कभी सहना नहीं पड़ेगा। प्रीति के मार्ग में आगे बढ़ते मुमुक्षुओं को भगवान के प्रति अनन्त भक्ति उत्पन्न होती है । परमात्मा की भक्ति के क्षणों में चित्त एकदम स्वस्थ व शांत बनता है । चित्त शांत होते ही प्रभु के वचनों के साथ अनुसंधान होता है । उससे वचनानुसारी प्रवृत्ति होती है । वचनानुसारी प्रवृत्ति में आगे बढ़ते ध्याता याने साधक ध्यान द्वारा परमात्मस्वरूप ध्येय के साथ एकाकार बनता है । भक्ति के इन पलों में साधक जिस आत्मिक सुख की अनुभूति करता है, वह अवर्णनीय होती है । अनुभव का यह आनंद शब्दों के द्वारा नहीं कहा जा सकता । फिर भी अनुभूति के पल में महापुरुषों को कैसा आनंद होता है, उसकी साक्षी उनके मुख से निकले शब्द ही हैं ।
"हम मगन भये प्रभु ध्यान में, ध्यान में, ध्यान में, ध्यान में; बिसर गई दुविधा तन-मन की, अचिरासुत गुण गान में हरिहर, ब्रह्म, पुरंदर की ऋद्धि, आवत नहि कोउ मान में; चिदानंद की मोज मची है, समतारस के पान में... हम मगन भये..."