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________________ जयवीयराय सूत्र (प्रार्थना सूत्र ) २०३ ही लगती है, फिर भी वास्तविक दृष्टि से सोचें, तो वह नियाणा स्वरूप नहीं है, क्योंकि शास्त्र में भौतिक आकांक्षा को नियाणुं कहा गया है, परन्तु आध्यात्मि सुख के लिए उपयोगी वस्तु की आकांक्षा को नियाणुं नहीं कहा गया । मोक्ष अनिच्छा स्वरुप है । इसलिए किसी भी प्रकार की इच्छा या माँग मुमुक्षु के लिए योग्य नहीं है । फिर भी जब तक आत्मा पर मोह का अस्तित्व है, तब तक कोई न कोई इच्छा होने ही वाली है । अप्रशस्त इच्छाएँ साधक आत्मा को भी कर्म बंधवाकर भव में भटकाती हैं। इसलिए ऐसी अप्रशस्त इच्छाओं का अंत लाने के लिए और प्रशस्त गुणों को प्रकट करने के लिए कुछ भूमिका तक यह माँग भी आत्मा के लिए उपकारक है । ऐसी प्रशस्त माँग द्वारा ही साधक मोह का नाश करके, गुण प्राप्ति के लिए निश्चित प्रकार का प्रयत्न कर सकता है । इसलिए जब तक मोह का साम्राज्य है, तब तक ऐसी माँग करना साधक के लिए योग्य ही है । अतः साधक कहता है - “ सिद्धांत में नियाणुं करने का निषेध | होने के कारण मुझे कोई आकांक्षा ही नहीं रखनी चाहिए । इसके बावजूद “ आपके चरण की सेवा मुझे प्राप्त हो" ऐसी आकांक्षा मैं नहीं छोड़ सकता क्योंकि, उसके बिना मेरा कल्याण संभव नहीं है ।" चरण की सेवा अर्थात् मात्र काया की सेवा की ही यहाँ माँग नहीं की गई है अपितु परमात्मा के चरण अर्थात् चारित्र की अथवा चरण अर्थात् आपने जो तत्त्वमार्ग का (आज्ञा का) निरुपण किया है, उस आज्ञा का यथार्थ पालन करने रूप तत्त्वकाय की सेवा मुझे प्राप्त हो, वैसी यहाँ माँग की गई है । यद्यपि सद्गुरु के वचन सच्चारित्र के पालन स्वरूप ही हैं । इसलिए उनके वचन सेवन की माँग में यह माँग आ ही जाती है, तो भी " भगवान के चरणों की सेवा मुझे भवोभव मिले” यह माँग अत्यंत भाववृद्धि का कारण बने ऐसी है । इसलिए इस प्रकार पुनः की गई प्रार्थना दोषस्वरूप नहीं है ।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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