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सूत्र संवेदना - २
अतिरसिक भारी कर्मी जीवों को सद्गुरु का योग भी गुणकारी नहीं होता। इसलिए सुगुरु के साथ सुयोग करने के लिए भवनिर्वेद आदि गुण प्राप्त करना खास ज़रूरी है ।
जैसे-जैसे आत्मा में भवनिर्वेद आदि गुणों का विकास होता है, वैसे-वैसे आत्मा को हित मार्ग में जोड़नेवाले गुरु की सच्ची पहचान होती है, आत्महित का मार्ग बतानेवाले गुरु उपकारक लगते हैं, उनके मोक्षसाधक वचनों को सुनने का मन होता है, उनके वचनों पर विश्वास होता है । 'यही परमहित को करनेवाले हैं, यही सन्मार्ग दर्शक गुरु हैं,' वैसा बुद्धि में स्थिर होता है, उनके एक-एक वचन को साधक तीव्र जिज्ञासा के साथ सुनता है, सुनकर उसी प्रकार जीवन जीने का यत्न भी करता है, परन्तु अभी तक ऐसी शक्ति पैदा नहीं हुई कि पूर्णतया उनके वचनानुसार जीवन जी सके। इसीलिए उन वचनों को कार्यान्वित करने की पुनः पुनः परमात्मा से प्रार्थना करता है । ऐसी आत्मा को हुआ सुगुरु का योग योगावंचक योग कहलाता है ।
सुगुरु के साथ ऐसा योग साधने के लिए भव का योग कम करना पड़ता है, माना-मायादि कषायों की मात्रा मंद करनी पड़ती है, मन को समझाना पड़ता है कि, 'ये ही मेरे लिए सर्वस्व हैं, ये ही मुझे सन्मार्ग प्राप्त करवानेवाले हैं। मैं तो अज्ञानी और अबुध हूँ, इस गुणवान व्यक्ति की अनुकूलता ही मेरी अनुकूलता है, उनकी प्रसन्नता ही मेरी प्रसन्नता है, उनका संतोष ही मेरा संतोष है, ऐसी भावना हो तो सुगुरु का योग सफल होता है।
पाप के उदय से बहुत बार ऐसे सुगुरु की प्राप्ति नहीं होती और कदाचित् पुण्योदय से सुगुरु प्राप्त हों तो भी विषयों की आसक्ति, मानादि कषायों की प्रबलता, ऐसे गुरु के साथ सुयोग होने नहीं देती । शरीर से उनके साथ रहने के बावजूद उनके प्रति श्रद्धा और समर्पण का भाव प्रगट नहीं होने देती। मुमुक्षु आत्मा समझती है कि यह श्रद्धा का भाव खुद के सामर्थ्य से सम्भव नहीं है । उसी कारण यह पद बोलते हुए वह भगवान को बिनती करता है,