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________________ जयवीयराय सूत्र (प्रार्थना सूत्र) . १९७ सुगुरु के साथ का संबंध भी दो प्रकार से हो सकता है । एक सुयोग और दूसरा कुयोग, गुणवान गुरु के साथ गुणप्राप्ति की इच्छा से या आत्महित की इच्छा से जो संबंध होता है, उसे सुयोग कहते हैं और सुगुरु के साथ मानादि की इच्छा से, सुख-सुविधा की इच्छा से या अन्य किसी संसारी आशंसा से योग हो, तो उसे कुयोग-वंचक योग कहते हैं । आत्मा को ठगनेवाला, आत्मा का अहित करनेवाला संबंध अर्थात् वंचक योग गुणवान आत्मा के साथ भी स्वार्थ से, अनुकूलता के लिए या रोग के निवारण के लिए, मानादि कषायों के पोषण के लिए जो संबंध बांधा जाता है, वह आत्मा का अहित करनेवाला होने से, उसे वंचक योग कहते है । अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण करते हुए अनंत बार तीर्थंकर जैसे श्रेष्ठ गुरु हमें मिले होंगे, परन्तु उनके साथ भी तुच्छ आशयों से संबंध बांधने के कारण, ऐसे वंचक-योग के कारण श्रेष्ठ गुरु मिलने पर भी अपना उद्धार नहीं हुआ । कई बार तो ऐसे संबंध के कारण भवभ्रमण अटकने के बदले बढ़ भी जाता है । जैसे कोई अज्ञानी सोने के बदले पीतल या रत्न के बदले काँच के टुकड़े खरीदकर ठगा जाता है, वैसे ऐसे संबंध बाँधने वाला जीव भी आत्महितकर सद्गुरु का योग होने के बावजूद सांसारिक भावों से ठगा जाता है । गुण रत्नों की प्राप्ति हो, वैसे स्थान से भी स्व इच्छा की तुच्छ पूर्ति करके संतोष मानता है । इसी कारण उसके लिए यह योग वंचकयोग बनता है। जो संबंध आत्मा का हित करनेवाला, सन्मार्ग में प्रेरक और पूरक बननेवाला, रागादि भावों से दूर रखकर वैराग्यादि भावों की वृद्धि करनेवाला होता है, उसे सुयोग अथवा अवंचक योग कहा जाता है । गुणवान गुरु के साथ ऐसा संबंध जुड़ जाए तो जरूर आत्मा का हित होता है। उत्तरोत्तर गुणवृद्धि द्वारा आत्मविकास होता है। सुगुरु के साथ ऐसा सुयोग्य संबंध ही मोक्ष तक पहुँचा सकता है, अन्य कोई संबंध नहीं। जैसे अत्यंत रोगी को पथ्य वस्तु भी गुणकारी नहीं होती, वैसे संसार के
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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