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________________ जयवीयराय सूत्र (प्रार्थना सूत्र) . १९५ परार्थकरण है। प्रारंभिक कक्षा में साधक आत्मा मर्यादित क्षेत्र में अर्थात् खुद से संबंधित स्वजन, स्वज्ञाति जनों को जीवन उपयोगी वस्तु हेकर धर्ममार्ग में सहायक बनकर परोपकार करता है और इसी परोपकर की पराकाष्ठा को प्राप्त अरिहंत की आत्माएँ निःस्वार्थ भाव से जगत् के जीव मात्र का हित करने के लिए धर्ममार्ग का उपदेश देती हैं, यह भाव-परार्थकरण है । इस ‘परार्थकरण' गुण के बिना कभी भी लोकोत्तर धर्म की आराधना नहीं हो सकती । यह पद बोलते समय साधक परमात्मा को प्रार्थना करता है, 'हे नाथ ! अनादिकाल से आत्मा में स्थित यह स्वार्थ या संकुचित वृत्ति मुझे परोपकार में उत्साहित नहीं होने देती, उदारता गुण को प्रकट नहीं होने देती। हे प्रभु ! आप कृपा करके मुझे ऐसे आशीर्वाद दीजिए कि आपके प्रभाव से मेरी स्वार्थवृत्ति का विनाश हो और मैं परोपकार में रत बनँ ।' जिज्ञासा : परार्थकरण करने से कैसे फायदे होते हैं ? तृप्ति : परार्थकरण से उदारता आती है, सद्वीर्य की उत्कटता प्राप्त होती है, संकुचित या स्वार्थवृत्ति का त्याग होता है, परोपकारी पुरुषों का यश सर्वत्र फैलता है, उनका वचन और व्यवहार सर्वत्र ग्राह्य बनता है, परोपकारी पुरुष अनेकों के लिए धर्मप्राप्ति का कारण बनते हैं, निराशंस भाव से परार्थ करनेवाली आत्मा को पुण्यानुबंधी पुण्य का बंध होता है, जो भवांतर में उसे उत्तम संयोगों की प्राप्ति करवाता है ।। उपरोक्त छ: माँग लौकिक सौंदर्य स्वरूप हैं क्योंकि लोग भी ऐसा मानते हैं कि धर्मी आत्मा में ये छः गुण अवश्य होने चाहिए और धर्म की आराधना मोक्ष के लिए ही की जाती है, वैसा सभी आस्तिक दर्शनकार भी मानते हैं । मोक्ष के प्रति लगाव भव की विरक्ति के बिना संभव नहीं है, इसलिए भवनिर्वेद आदि छ: गुण लोकोत्तर धर्म की आराधना के लिए तो जरूरी हैं
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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