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जयवीयराय सूत्र (प्रार्थना सूत्र)
१८७ क्योंकि भवविरक्त आत्मा को लौकिक पदार्थों की अपेक्षा धर्म प्रगति की इच्छा ज्यादा होती है । इसीलिए धर्म में सहायक बननेवाले लौकिक पदार्थ की माँग ‘इष्टफलसिद्धि' के रूप में की जाती है ।
इस तरह अंतःकरणपूर्वक परमात्मा के पास प्रार्थना करने से विशिष्ट क्षयोपशम होता है और कर्म निकाचित न हो, तो इष्ट की प्राप्ति हो भी सकती है। इष्ट वस्तु की प्राप्ति होने पर चित्त स्वस्थ बनता है और निराकुलता से मोक्ष के कारणभूत धर्ममार्ग में आगे बढ़ा जा सकता है ।
श्री जैनशासन में दुःखादि को दूर करने के लिए मंत्र, तंत्र, यंत्र एवं स्तोत्र आदि सब है। परन्तु वह मुक्ति के अर्थी के लिए है, क्योंकि मुक्ति का अर्थी जो कुछ करता है, वह मुक्ति के लिए या मुक्ति प्राप्त करने की साधना में आनेवाले अवरोध को टालने के लिए करता है । जिसमें मुक्ति की कामना न हो, जिसे भववैराग्य अच्छा नहीं लगता हो ऐसे मिथ्यादृष्टि को यह मंत्र, तंत्र या यंत्र दिया जाए तो, अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामी ने ऋषिमंडल स्तोत्र में लिखा है कि, "मिथ्यात्ववासिने दत्ते बालहत्या पदे पदे ।" मिथ्यात्व से वासित जिसकी बुद्धि है, उसे मंत्रादि देने से एक-एक पद के प्रति बालहत्या का पाप लगता है ।।
जिज्ञासा : वीतराग परमात्मा के पास रागवर्धक स्त्री, धन या निरोगी शरीर आदि की प्रार्थना करना क्या योग्य है ?
तृप्ति : सांसारिक सुख को भुगतने या मौज़ करने के लिए स्त्री, धनादि को भगवान के पास माँगना योग्य नहीं है, परन्तु जिसको मोक्ष की साधना करनी है और ऐसा सत्त्व नहीं है कि सर्वसंग का त्याग कर सके, इस कारण जिसे संसार में रहना पड़ता है, उसे संसार चलाने के लिए धनादि की जरूरत पड़ती है, ये चीजें जब तक न मिलें, तब तक उनके अभाव में मन की स्वस्थता टिक सके, ऐसी स्थिति नहीं हो और जिसके कारण मन संक्लेश से घिरा हुआ रहता हो, आधि-व्याधि-उपाधियों के कारण मन आर्त-रौद्रध्यान से ग्रस्त हो