SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८६ सूत्र संवेदना - २ संसार छोड़ना ही है, मोक्षमार्ग पर चलना ही है; परन्तु पुण्य की कमी है, अनुकूलता नहीं है, अनुकूलता मिले तो जल्दी छोड़ सकूँ, ऐसी कामना 'इष्टफलसिद्धि' है। भव से विरक्त आत्मा को सांसारिक पदार्थो से ज्यादा, महत्त्व धर्म का होता है। इसलिए अपनी भूमिका के अनुसार उसे यथाशक्ति धर्म करने की इच्छा होती है। फिर भी सत्त्वहीनता के कारण हर परिस्थिति में उसका मन स्वस्थ नहीं रहता। कभी जीवन के लिए जरूरी धन का अभाव, तो कभी विषयों की आसक्ति वगैरह उसके मन को व्यथित करती है । चिंताओं की वजह से उसका मन धर्म में स्थिर नहीं रहता। ऐसी परिस्थिति में अपने मन को स्वस्थ और समाधि में रखकर धर्ममार्ग में आगे बढ़ाने के लिए साधक यह पद बोलकर परमात्मा से प्रार्थना करता है - "हे नाथ ! मैं पामर हूँ । जिससे संयम स्वीकार नहीं कर सकता और संसार में संपत्ति या स्त्री वगैरह के बिना भी नहीं, चलता इसलिए कमनसीबी से कमाने तो जाना ही पड़ता है, धनादि भाग्यानुसार ही मिलनेवाले हैं । तो भी हे नाथ ! आप की कृपा से संपत्ति ऐसी मिले, कि जिससे धर्मसाधना में कोई अवरोध न आए । हे नाथ ! आपकी कृपा से न्याय-नीतिपूर्वक उतना धन मिले कि, जिससे मैं सामायिक आदि धर्मक्रिया स्वस्थ चित्त से कर सकूँ तथा दूसरे अनेक अनर्थ से बचने के लिए मुझे शादी तो करनी ही पड़ेगी - किसी न किसी पात्र के साथ तो जुड़ना ही पड़ेगा । तो भी हे प्रभु ! आपके प्रभाव से मुझे ऐसे पात्र का संयोग हो कि - जिससे मेरा मन मोक्षमार्ग से लेश मात्र भी न हटें ।” इस प्रकार श्रीवक मोक्षमार्ग में मन को टिकाने के लिए स्त्री, धन या निरोगी शरीर' आदि की माँग करे और साधु मोक्षमार्ग की साधना में साधनभूत शरीर को टिकाने के लिए निर्दोष भिक्षा या योग्य स्वास्थ्य आदि की माँग करे, तो उसे भी ‘इष्टफलसिद्धि के रूप में गिना जा सकता है
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy