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________________ १७७ जयवीयराय सूत्र (प्रार्थना सूत्र) मंदिर में बिराजमान रहे तो मोह की ताकात नहीं है कि मुझे हरा सके । आपके सांनिध्य में मेरी विजय निश्चित है।" इसी भाव में पूज्य महोपाध्याय यशोविजयजी महाराज ने कहा है - तुझ बिना में बहु दुःख लह्यां तुझ मिले ते केम होय रे ? तुं मुज हृदयगिरिमां वसे सिंह जो परम निरीह रे. कुमत मातंगना जूथथी तो किशी प्रभु मुझ बिह रे...? - सीमंधरस्वामी के १२५ गाथा के स्तवन की ११वीं ढाल ऐसे भावपूर्वक साधक वास्तव में तो प्रभु के जय द्वारा मोह के सामने युद्ध में अपनी ही जय चाहता है । अपनी चित्तभूमि के ऊपर मोह तथा वीतराग के वचन के बीच के युद्ध में वीतराग के वचनों की जय चाहता है। जगगुरु - हे जगत् के गुरु ! (आप की जय हो ।) तत्त्व को यथार्थ स्वरुप में जो कहे, वह गुरु है । धर्मास्तिकाय आदि पाँच द्रव्य जहाँ हैं, उसे जगत् कहते हैं । पंचास्तिकाय स्वरूप जगत् जिस स्वरूप में रहा है, उसी स्वरूप में उसे देखकर, जो लोगों के आगे उसका यथार्थ कथन करते हैं, उन्हें जगत् के गुरु कहते हैं । भगवान केवलज्ञान द्वारा जगत् के पदार्थों को यथार्थ रुप में देखते हैं और जैसा देखते हैं, वैसा ही जगत् के आगे वचनातिशय द्वारा कथन भी करते हैं । इसलिए परमात्मा को जगत् गुरु कहा गया है । परमात्मा को गुरु के रूप में संबोधित करने से उनके केवलज्ञान और मार्गदेशकता नाम के दो महान गुण सूचित होते हैं । पूर्व वाक्य द्वारा जैसे रागादि शत्रु पर विजय की आशंसा व्यक्त की गई है, वैसे 'हे जगत् के गुरु आपकी जय हो', ऐसा कहने से, अज्ञानता आदि शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने की आशंसा व्यक्त की गई है । ये दोनों पद बोलते हुए साधक वीतराग परमात्मा को संबोधन करता है और संबोधित किए गए भगवान उसके हृदय कमल में पधारे हैं, ऐसा अनुभव करता है । 2. गृणाति-उपदिशति तत्त्वं इति गुरुः ।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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