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जावंति चेईयाइं सूत्र
सव्वाइं ताइं वंदे, इह संतो तत्थ संताई रहे हुए उन सभी चैत्यों को वंदन करता हूँ ।
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यहाँ रहा हुआ (मैं) वहाँ
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'उन सभी चैत्यों को मैं यहाँ से वंदन करता हूँ,' ऐसा कहने का कारण यह है कि सभी चैत्यों को वंदन करने की इच्छा तो है, परन्तु इतनी शक्ति नहीं है कि उन-उन स्थान पर जाकर सदेह वंदना कर सकूँ । इसलिए तीनों लोक में रहे सभी चैत्यों को स्मृतिपट पर लाकर, परमात्मा की अनुपस्थिति में 'ये चैत्य ही मेरे भवनिस्तार का कारण हैं, मुझमें शुभभाव पैदा करने के प्रबल निमित्त हैं, इन चैत्यों के दर्शन द्वारा ही मेरी आत्मा का दर्शन करके मैं अपनी आत्मा के हित के लिए कुछ कर सकूँगा । इसलिए परम उपकारी इन चैत्यों को, यहाँ रहकर भी मैं वंदना करके मेरी आत्मा को कृतार्थ करूँ।' ऐसे भाव के साथ, ऐसी शुभ संवेदनापूर्वक यह सूत्र बोला जाए तो आत्मा कुछ विशिष्ट भावों को प्राप्त करके, महान कर्मनिर्जरा कर सकती है ।
इस बात को प्रदर्शित करते हुए श्री ठाणांगसूत्र की टीका में लिखा है कि - भत्तीए जिणवराणं खिनंति पुव्वसंचिया कम्मा । श्री जिनेश्वर भगवंत की भक्ति से भूतकाल के अनेक जन्मों में बंधे हुए कर्म नाश होते हैं । इसी कारण विशेष कर्मनिर्जरा के उपायरूप विरति को स्वीकारने में असमर्थ देवता आदि भी भगवद् भक्ति के माध्यम से ही बहुत कर्मों की निर्जरा करते हैं। उनके लिए परमात्म भक्ति सबसे सरल और आसान कर्मक्षय का साधन है ।