SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३८ सूत्र संवेदना - २ अब शत्रु की ऐसी शक्ति नहीं है कि, वे कहीं से भी प्रवेश कर सकें । दशवें गुणस्थान के अंत में परमात्मा मोह के परम विजेता बनने स्वरूप जीत अवस्था को पाते हैं । मोह का नाश होने पर स्थिर एवं निश्चल बने हुए परमात्मा ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय एवं अंतराय कर्म का नाश करने के लिए प्रयत्नशील बन जाते हैं । बारहवें गुणस्थानक के अंत में उन्हें भी जड़ मूल से समाप्त करके वे दोष रूप सागर को पूरी तरह से तैर जाते हैं । इस प्रकार बारहवें गुणस्थानक के अंत में परमात्मा तीर्ण अवस्था को पाते हैं । दोषों का सर्वथा नाश होने पर प्रभु को तेरहवें गुणस्थानक में जाज्वल्यमान केवलज्ञान एवं केवलदर्शन प्रकट होता है । उसके कारण उन्हें चराचर संपूर्ण जगत् का बोध होता है, इस तरह बुद्ध अवस्था प्रभु को प्राप्त होती है एवं साथ में प्रकृष्ट पुण्य के अनुभव स्वरूप तीर्थंकर नामकर्म का उदय भी होता है । घातिकर्म स्वरूप पापकर्मों का नाश एवं स्वगुणों का संपूर्ण प्रकटीकरण होने के बाद जब अल्प आयुष्य बाकी रहे, तब परमात्मा बाकी के अघाति कर्मों का नाश करने के लिए शैलेशीकरण करते हैं । चौदहवें गुणस्थानक में शुक्लध्यान के अंतिम दो पैरियों पर आरूढ़ होकर परमात्मा योग का निरोध करके सर्व कर्मों से मुक्त होते हैं । इस प्रकार उत्तरोत्तर गुणों का विकास करके परमात्मा अंत में मोक्ष तक पहुँचते हैं । जब वे संसार में होते हैं, तब देशनादि द्वारा जगत को रागादि से जीतानेवाले एवं मोक्ष में जाने के बाद भी उनके वचन या मूर्ति आदि का निमित्त लेकर लोग मोह को जीतकर संसारसागर को पार करके, केवलज्ञान को प्राप्त कर सर्व कर्म से मुक्त होते हैं । इसलिए परमात्मा के लिए ही 'जिणाणं जावयाणं' आदि विशेषण योग्य हैं । इन चार पदों को बोलते वक्त जीते हुए एवं जीतानेवाले, तैरे हुए एवं
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy