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सूत्र संवेदना - २
घड़े का नाश तत्काल होनेवाला है, इस बात का स्वीकार पहले से नहीं किया था, इसलिए तू दुःखी होता है। संसार के सब भाव नश्वर हैं, तो भी उनका अस्वीकार ही मुझे दुःखी करता है, इस बात का बार बार विचार कर! जिससे नश्वर संसार तुझे चिंतित न करे एवं तू कभी दुःखी न हो ।'
यदि इस संसार की अनित्यता तुझे समझ में आ जाए, तो तेरी बहुत सी निरर्थक अपेक्षाओं का अंत आ जाएगा । अपेक्षाएँ कम होने से तुझे व्याकुल करनेवाली उत्सुकताएँ भी शांत हो जाएँगी । उत्सुकता के शमन से तुझ में स्थिरता आएगी एवं स्थिरता आने से तू परम आनंद को प्राप्त कर सकेगा । हे आत्मन् ! जब तक तेरी निरर्थक अपेक्षाएँ न घटें, तब तक तू भगवान की आज्ञा की अपेक्षा रख ! क्योंकि 'धम्मो जिणाणमाणा' जिनेश्वर परमात्मा की आज्ञा ही धर्म है । भगवान की आज्ञानुसार क्षमादि गुणों को प्रकट करने का प्रयत्न कर। क्षमादि गुण जिससे प्राप्त हों, वैसी ही क्रिया में रुचिपूर्वक भाग लें । जिस क्रिया से दोष का पोषण हो एवं गुण का शोषण हो, वैसी क्रिया से तू दूर रह।
हे भव्यजीव ! दुरंत संसार का सृजन हो, वैसे प्रवचन के मालिन्य से तू दूर रह । तेरी एक भी प्रवृत्ति ऐसी नहीं होनी चाहिए कि जिससे तीर्थंकर या तीर्थकर के बताए हुए धर्म की निंदा हो। तेरे निमित्त से निग्रंथ गुरु भगवंतों के प्रति किसी को लेश मात्र भी द्वेष न हो, तुझसे कुछ अनुचित न हो जाए इसलिए तू ज्ञानी पुरुष की निश्रा में रह। अपने आत्मभावों को सदा देखता रह। आत्मभाव प्राप्त करने के लिए तू संम्म के योग का सतत सेवन कर। ज्ञानी पुरुष के पास शास्त्र सुन, उसका चिंतन कर, सतत उसका परिशीलन कर । संयम की साधना करते समय कभी अरति आदि भाव हो तो सद्गुरु के शरण का स्वीकार कर, शास्त्र वचन रूप मंत्रों का जाप कर । विविध प्रकार के तपरूप औषध का तु आसेवन कर । इससे तेरे क्लिष्ट कर्मों का विनाश होगा, तेरी आत्मा निर्मल होगी एवं तु शाश्वत सुख को प्राप्त कर सकेगा ।'
इस प्रकार भवविरक्त आत्मा को भगवान चारित्रधर्म की उत्तरोत्तर अवस्था एवं उसके फल का दर्शन करवाकर चारित्रधर्म को प्राप्त करवानेवाला उपदेश देते हैं।