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नमोत्थुणं सूत्र
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बदल सकता। अनादिकाल से जीव को भौतिक पदार्थों से ही सुख मिलेगा ऐसा पूर्वग्रह (जडता भरा एक अभिप्राय) पैदा हो गया है । उसकी यह गाँठ उसे आत्मविकास नहीं करने देती । धागे में पड़ी हुई गांठ जिस प्रकार सुई को आगे नहीं बढ़ने देती, उसी प्रकार इस ग्रंथी के कारण जीव सत्य तत्त्व को देखकर भी आत्मिक विकास में आगे नहीं बढ़ सकता। ज्ञानशक्ति से इन्द्रियों के द्वारा पदार्थ के बाह्य रूप-रंग का ज्ञान प्राप्त होता है । तो भी तीव्र रागादि के कारण उसमें रही हुई नश्वरता, आत्मा से भिन्नता एवं आत्मा के लिए अनुपकारिता आदि धर्म का ज्ञान नहीं हो सकता ।।
कभी किसी महापुरुष के वचनामृत से स्त्री, संपत्ति आदि पदार्थ नश्वर हैं, आत्मा को रागादि भावों से मलिन करनेवाले हैं, कर्म का बंध करवाकर दुर्गति में ले जानेवाले हैं वगैरह बातें समझ में आती है, थोड़ी श्रद्धा भी होती है, तो भी ग्रंथि की उपस्थिति में = मिथ्यात्व के उदयकाल में ये भाव छोड़ने योग्य हैं, आत्मा के लिए अहितकर हैं, वैसा स्पष्ट संवेदन नहीं होता । जैसे कि, पाँचों इन्द्रियों के अनुकूल विषयों का भोग आत्मा के लिए अहितकर है, फिर भी मिथ्यात्व की विद्यमानता में उसका ही संवेदन सुखप्रद होता है, इसलिए शास्त्रीय परिभाषा में इस अवस्था को अवेद्य-संवेद्य पद46 कहते हैं ।
सर्प को देखकर यह सर्प मारनेवाला है, ऐसा संवेदनात्मक ज्ञान होने पर जीव सर्प से डरता है, उससे दूर भागता है । उसी तरह से स्त्री, संपत्ति आदि हेय पदार्थों का हेयरूप से संवेदनात्मक ज्ञान होने पर यदि आत्मा को उससे दूर रहने की इच्छा हो तो कह सकते हैं कि पदार्थ का यथार्थ संवेदन हुआ, परन्तु सम्यग्दर्शन की गैरहाज़िरी में पापक्रिया या पाप के साधनभूत स्त्री, संपत्ति आदि ‘मेरे अहित या मेरी दुर्गति का कारण बन सकते हैं' ऐसा भय या ऐसी संवेदना जीव को नहीं होती, इसलिए वह हितकारक संयमादि गुणों की उपेक्षा कर अहितकारी स्त्री, संपत्ति आदि में ही प्रवृत्ति करता रहता है। 46. अवेद्य-संवेद्य पद : जिस वस्तु का जिस स्वरूप में वेदन होना चाहिए, उस रूप में वेदन न होकर अलग रूप से वेदन होना, उसे अवेद्य-संवेद्य पद कहते है । मिथ्यात्व की उपस्थिति में उसकी अचूक उपस्थिति होती है एवं सम्यग्दर्शन प्राप्त होने पर वह नाश हो जाता है ।