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नमोत्थुणं सूत्र
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क्रिया, पहले की धर्मश्रवण क्रिया की अपेक्षा विशिष्ट प्रकार की होती है । पहले धर्मश्रवण की क्रिया कुछ शुभ भाव पैदा करती है, परन्तु विशिष्ट प्रकार का हेय-उपादेय का विवेक तो यहाँ ही प्रगट होता है । इस विवेक के कारण संसार के सर्वश्रेष्ठ भाव उसे तुच्छ लगते हैं । नरेन्द्र या चक्रवर्ती के भोग में भी उसे आसक्ति नहीं होती बल्कि उसमें नरकादि के दुःख का दर्शन होता है एवं आत्मोपकारक संयमादि भाव उसे सुंदर लगते हैं । मन में संयमादि भाव प्राप्त करने की उत्कंठा जागृत होती है । यहाँ सम्यग्दर्शन के अत्यंत नजदीक की भूमिका संपन्न होती है। योग की चौथी दृष्टि दिप्रादृष्टि 44 योग्य बोध की यहाँ प्राप्ति होती है ।
तत्त्वचिंतन रूप इस शरण के प्रदाता भी अरिहंत ही है क्योंकि उन्होंने सर्वश्रेष्ठ तत्त्वभूत अवस्था को प्राप्त की है । वे स्वयं सर्वांश से रागादि शत्रु से सुरक्षित हैं और अन्य को भी सुरक्षित करते हैं। ऐसे स्वरूपवाले परमात्मा को देखने से एवं उनका चिंतन-मनन या ध्यान करने से अशरण दशा में ले जानेवाले रागादि भाव एवं उनको उत्पन्न करनेवाले हमारे कर्मों का नाश होता है । इस प्रकार निमित्त भाव से परमात्मा ही अपने सच्चे शरण दाता हैं - रक्षक हैं।
४. धारणा : ग्रहण किए हुए सर्व वाक्यों को पूर्वापर के अनुसंधान पूर्वक मन में स्थिर करना । ५. विज्ञान : अज्ञान, संशयादि दोषों को दूर करके, स्थिर किए हुए तत्त्वों का विशेष बोध प्राप्त
करना ।
६. ऊह : विशेष चिंतन करने से मन में जिज्ञासा हो कि इस तत्त्व के विषय में परमात्मा ने ऐसा क्यों कहा है ? जैसे कि 'अहिंसा ही धर्म है' तो श्रावक के लिए बाह्य से हिंसारूप जिनपूजा का विधान क्यों है ? ऐसी जिज्ञासा या तत्त्व विषयक सामान्य ज्ञान ऊह कहलाता है ।
७. अपोह : मन में हुई शंका का सामाधान मिले वैसा विशेष बोध अथवा तत्त्वविषयक विशेष
८. तत्त्वाभिनिवेष : यह पदार्थ इस प्रकार से सत्य ही है, ऐसा निर्णय ।
44. दिप्रादृष्टि : प्रथम तीन दृष्टियों की अपेक्षा यहाँ मार्ग विषयक बोध बहुत अधिक होता है । यहाँ तत्त्व विषयक गहरा चिंतन होता है । सद्बुद्धि का विकास भी अधिक प्रमाण में होता है । सम्यग्दर्शन की अत्यंत समीप की भूमिका यहाँ प्राप्त होती है । ऐसा होने पर भी अभी सम्यग्दर्शन के अभाव के कारण यह बोध दीपक के प्रकाश के समान अस्थिर होता है । इसलिए इस दृष्टि का नाम दिप्रादृष्टि कहलाती है ।