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नमोत्थु सूत्र
मार्ग भी स्पष्ट नहीं दीखता, ऐसा होने पर भी भगवान की कृपा का पात्र बनकर साधक इस विषय में जैसे-जैसे अधिक सोचता है, वैसे-वैसे मोहनीय कर्म का आवरण दूर होता है, जिसके कारण तत्त्वमार्ग का विशेष बोध होता है । इस मार्ग पर जाने से ही सुख मिलेगा, ऐसी श्रद्धा उत्पन्न होती है । यह श्रद्धा का परिणाम ही चक्षु है ।
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तत्त्व की श्रद्धा का यह परिणाम ही धर्म के प्रति रुचि का परिणाम है । एक मात्र धर्म ही ऐसा है कि जो मेरे कषायों का नाश करके मुझे सुख देगा, वैसी थोड़ी प्रतीति इस भूमिका में होती है । इसके कारण सुंदर धर्म करनेवाली आत्मा को देखकर आनंद होता है, उसकी प्रशंसा करने का मन होता है । इस श्रद्धा का परिणाम ऐसा तीव्र नहीं होता कि जो तत्त्वदर्शन करवाए, तो भी वह तत्त्वदर्शन का कारण बने, इतना तो है ही । जिस प्रकार शत्रुंजय की सीढियाँ चढ़ते समय आदीश्वर दादा के दर्शन नहीं होते, तो भी आसानी से सीढियाँ चढ़ने की शुरूआत करनेवाले पथिक को श्रद्धा तो होती ही है कि अब थोड़े समय में दादा के दर्शन होंगे; उसी प्रकार चक्षु स्वरूप क्षयोपशम को पाकर जीव अभी तक कोई उपशम सुख की अनुभूति नहीं करता, तो भी 'मैं जरूर सुखी बनूँगा' वैसी उसे प्रतीति होती है क्योंकि यहाँ उसे उपशम भाव स्वरूप मोक्ष का मार्ग दिखाई देता है ।
श्रद्धारूप यह परिणाम प्राप्त होने पर यह आत्मा तत्त्व ज्ञानी के पास जाती है, तत्त्व विषयक अनेक प्रश्न पूछती है, तत्त्व प्राप्ति के उपायों को जानती है एवं आत्म शुद्धिरूप तत्त्व को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील साधक की औचित्यपूर्ण प्रशंसा करती है और खुद भी अनेक शुभ अनुष्ठान करती है । इस भूमिका में रहे हुए जीव को अभय की भूमिका की अपेक्षा थोड़ा विशेष बोध होता है । इस बोध को योग की दूसरी दृष्टि तारादृष्टि 38 में हुआ बोध कहते हैं ।
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38. तारादृष्टि : मित्रादृष्टि की अपेक्षा से बोध की मात्रा यहाँ थोड़ी अधिक होती है । इसीलिए यहाँ तत्त्व विषयक विशेष जिज्ञासा होती है । यह तत्त्वमार्ग ही मेरे लिए हितकारक है, वैसी श्रद्धा रूपी चक्षु की प्राप्ति जीव को यहाँ होती है । भव वैराग्य की मात्रा बढ़ती है । इससे सुखकारक संसार भी दु:खकारक लगता है; औचित्यादि गुणों का विकास होता है ।