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________________ नमोत्थुणं सूत्र की शक्ति की न्यूनता नहीं । अन्य कोई उपदेशक हो तो ऐसा हो सकता है कि छद्मावस्था के कारण या पुण्य प्रकर्ष के अभाव के कारण सामने वाले जीव में योग्यता होने पर भी उसके ऊपर पूर्ण उपकार न कर सके; परन्तु प्रकृष्ट पुण्य एवं केवलज्ञान के स्वामी भगवान के लिए ऐसा नहीं होता । यहाँ प्रश्न होता है कि मात्र सम्यग्दृष्टि के लिए ही भगवान को प्रदीप तुल्य क्यों कहा गया एवं भगवान के वचन से जिनकें मिथ्यात्व का नाश होनेवाला हो, वैसे जीवों के लिए भगवान को प्रदीप तुल्य क्यों नहीं कहा गया? जीव में जब तक मिथ्यात्व है, तब तक भगवान के वचन को यथार्थरूप से समझने की शक्ति उसमें होती ही नहीं । ऐसे मंद मिथ्यात्वी जीव जब भगवान के वचन को सुनते हैं, तब देशना से उनको ज्ञान चक्षु की प्राप्ति होती है । प्राप्त हुए इन चक्षुओं से वे पदार्थ का स्थूल दर्शन कर सकते हैं एवं इस प्रकार पदार्थ के दर्शन से उनका मिथ्यात्व नष्ट होता है एवं उन्हें सम्यग्दर्शन गुण की प्राप्ति होती है । इसके बाद ही वे भगवान के वचन पर यथार्थ श्रद्धा कर सकते हैं एवं उनके सूक्ष्म भावों को जान सकते हैं । इसलिए ऐसे जीवों के लिए ही भगवान प्रदीप तुल्य बन सकते हैं, अन्य के लिए नहीं । सम्यग्दृष्टि जीव के लिए प्रदीप तुल्य ऐसे परमात्मा को इस पद द्वारा भाव से नमस्कार करके ऐसी भावना से भावित बने कि - "हे लोकालोक प्रकाशक परमात्मा ! आपको किया हुआ यह नमस्कार मुझ में भी सम्यग्दर्शन गुण को प्रकट करके मुझे सन्मार्ग बताने में समर्थ बनें।” लोगपज्जोअगराणं (नमोऽत्थु णं) - लोक को प्रद्योत करनेवाले परमात्मा को (मेरा नमस्कार हो ।) 'लोक' शब्द से यहाँ विशिष्ट बुद्धि के धारक, गणधर पद के योग्य ऐसे जीवों को ही ग्रहण करना है क्योंकि "प्रकृष्टेन द्योतते इति प्रद्योतः" प्रकृष्ट रूप से
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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