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सूत्र संवेदना - २ सब वस्तुओं के प्रति औचित्यपूर्ण वर्तन करके अन्य का भी अहित नहीं करते ।
यह पद बोलते हुए ऐसा लगता है कि, सच्चे अर्थ में दूसरे का तो नहीं, परन्तु अपनी आत्मा का भी हम हित नहीं कर सकते, जब कि अरिहंत भगवान अपनी आत्मा का तो हित करते ही हैं साथ हि समस्त जीव-जगत्, एवं जड़-जगत् का भी हित करते हैं । परम हितकारक परमात्मा को नमन करते हुए हम याचना करें कि
"हे जगत् के हितकारक परमात्मा ! आपको किया हुआ नमस्कार मुझमें भी सर्व का हित करने का सामर्थ्य प्रकट
करनेवाला बने ।” लोग-पईवाणं (नमोऽत्थु णं) - लोक के लिए प्रदीप तुल्य परमात्मा को (मेरा नमस्कार हो)
यहाँ 'लोक' शब्द से विशिष्ट संज्ञी जीव ऐसे सम्यग्दृष्टि जीवों का ही ग्रहण करना है ।
परमात्मा की देशना सुनकर मिथ्यात्वरूपी अंधकार का नाश करके, सम्यग्ज्ञान रूपी चक्षु जिसने प्राप्त किए हों वैसे विशिष्ट संज्ञी अर्थात् दृष्टि का सम्यक् प्रकार से प्रकाश हुआ हो, ऐसे (सम्यग्दृष्टी) जीवों के लिए ही भगवान प्रदीप तुल्य हैं, दूसरों के लिए नहीं । क्योंकि, चक्षु के बिना अंधी आत्मा दीपक की सहायता से भी रूप नहीं देख सकती, वैसे ही सम्यग्दर्शन के परिणाम के बिना जीव, परमात्मा के वचन रूप प्रदीप से भी तत्त्वमार्ग को देख नहीं सकता । इसलिए कहा है कि, इस ज्ञान की किरणों को ग्रहण करने की शक्ति सम्यग्दृष्टि में ही है, मिथ्यादृष्टि में नहीं, क्योंकि मिथ्यादृष्टि भगवान के उपदेशात्मक वचन को सुनते हैं, तो भी उनके वचन के परमार्थ का संवेदन नहीं कर सकते। उनके वचन में रहे हुए सूक्ष्म भाव उनके ध्यान में नहीं आते, इसमें उन जीवों की योग्यता का अभाव ही कारण है, भगवान