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________________ नमोत्थुणं सूत्र सकता। जो व्यक्ति कषायो की पराधीनता से पर होकर कार्य संबंधी विचार करते हैं, वे ही औचित्य पूर्ण क्रिया कर सकते हैं । कषाय की प्रबलतावाले कभी भी औचित्य का पालन नहीं कर सकते । ५. सफलारंभिता : जिसमें फल प्राप्ति की संभावना हो, वैसे कार्य का आरंभ करना सफ़लारंभिता है । उत्तम पुरुष कार्य करने से पहले उसके फ़ल का विचार करते हैं । जिस क्रिया को करने से फ़ल प्राप्ति की संभावना हो, उसी क्रिया का वे आरंभ करते हैं। जो क्रिया करने के बाद फ़ल की प्राप्ति की कोई संभावना न हो, वैसी मन, वचन, काया की कोई भी क्रिया वे नहीं करते । इसलिए जब तक निकाचित भोगावली कर्म अर्थात् जो कर्म भुगते बिना नष्ट न हो वैसे कर्मों का नाश करके ही तीर्थंकर की आत्मा संयम का स्वीकार करती हैं। ६. अदृढ अनुशय : अनुशय अर्थात् कषाय । अरिहंत की आत्मा पहले से तो कषाय मुक्त नहीं होती, फिर भी उनके कषाय तीव्र स्तर के नहीं होते। दुष्ट अपराधी के अपराध को भी वे क्षण मात्र में भूल सकते हैं । ७. कृतज्ञता : अरिहंत की आत्मा में कृतज्ञता गुण भी विशिष्ट कोटि का होता है । सामान्य जीव तब तक अन्य के उपकार को याद रखता है, जब तक उस व्यक्ति की तरफ़ से कोई अपकार न हो; परन्तु अरिहंत की आत्मा तो अन्य जीवों की तरफ़ से अनेक अपकार होने पर भी उनका छोटा सा भी उपकार कभी नहीं भूलतीं । भगवान जो 'नमो तित्थस्स' बोलकर समवसरण में आसन ग्रहण करते हैं, वह भी उनकी कृतज्ञता का सूचक है । ८. अनुपहत चित्त : विकट परिस्थितिओं में भंग न हो वैसा सात्त्विक मन। निराशा या चंचलता न हो, वैसा चित्त । साधना के दरम्यान कितने भी उपसर्ग एवं परिषह आएँ तो भी जब तक उनको सिद्धि की प्राप्ति नहीं होती, तब तक अरिहंत की आत्मा का मन साधना मार्ग से डिगता नहीं। प्रारंभ किए हुए कार्य को वे कभी अपूर्ण नहीं छोड़ते, परन्तु कार्य के फ़ल तक उनका उत्साह सदृश (एक सा) ज्वलंत रहता है एवं कार्य पूर्ण करते हैं।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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