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________________ सूत्र संवेदना - २ राजा ने एक कबूतर को बचाने के लिए अपनी समग्र काया शिकारी को सौंप दी एवं नेमिनाथ प्रभु ने हिरणादि पशु को बचाने के लिए जिसके साथ नौ-नौ भव की प्रीति थी, वैसी राजकुमारी राजुल का भी त्याग कर दिया । इस स्वार्थ गौणता नामक गुण को प्रकट करने के लिए परम औदार्य, परम कारुण्य एवं प्रतिकूलता को प्रेम से स्वीकार करने की तैयारी अति आवश्यक है । ऐसे गुणों के विकास के बिना स्वार्थ गौणता संभव नहीं है । क्योंकि, अनादिकाल से जीव में, 'मैं एवं मेरा, मेरी एवं मेरे अपनों की सभी आवश्यकताएँ पहले पूरी हो जानी चाहिए, फिर दूसरों की बात'; ऐसी तुच्छ वृत्ति रही है । ऐसी संकुचित वृत्तिवाला जीव कभी भी उत्तम मार्ग को नहीं पा सकता । ३. अदीनता : परमात्मा के जीव में दीनता का, रंकपने का अभाव होता है । सत्त्वविहीन जीव छोटी-छोटी मुश्किलों में दीन-हीन बन जाते हैं । उनका चेहरा दयनीय बन जाता है; उनको देखते ही किसी को भी दया आ जाती है । तीर्थंकर की आत्माएँ किसी भी मुश्किल या प्रतिकूलता आने पर कभी दीन मुख वाली नहीं बनतीं । भगवान ऋषभदेव ४०० दिन तक आहार लेने के लिए गए, निर्दोष आहार न मिलने पर भी वे प्रसन्नता से वापिस लौटे । जिसे कर्म पर पूर्ण विश्वास होता है, वह उत्तम आत्मा ही ऐसे प्रसंगों पर अदीन भाववाली रह सकती हैं । ४. उचित क्रिया : जिर्से समय, जिस संयोग में, जो करने योग्य हो वो करना, वह उचित क्रिया है । अरिहंत अपनी बुद्धि एवं प्रतिभा का पूर्ण उपयोग करके, जिस समय जो करने योग्य हो, वही करते हैं । तीन ज्ञान के धारक एवं परम वैरागी प्रभु ने जब अपने ज्ञान द्वारा जाना कि माता की हाजिरी में संसार का त्याग करने से भीहाधीन माता आर्त्तध्यान करके दुर्गति में जायेंगी, तब अपने उपकारी की दुर्गति म हो, इसलिए गर्भावस्था में ही वीर प्रभु ने माता-पिता की हाजिरी में संयम नहीं ग्रहण करने का नियम लिया । यह नियम परम औचित्य का सूचक है । औचित्य का विचार कषाय की अल्पता के बिना नहीं आ
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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