SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्र संवेदना - २ 24सयंसंबुद्धाणं (नमोऽत्थु णं) - जिन्होंने स्वयं ही सम्यग् बोध को प्राप्त किया है, ऐसे परमात्मा को (मेरा नमस्कार हो ।) तीर्थंकर परमात्मा का तथाभव्यत्व25 विशिष्ट कोटि का होता है । जिसके कारण वे स्वतः ही संबोध अर्थात् श्रेष्ठ बोधि को प्राप्त करते हैं । गाढ़ मोह की निद्रा में पड़े हुए जगत के जीवों को जागृत करने के लिए महापुरुष अथक प्रयत्न करते हैं, तो भी कुछ जीव ही मोह निद्रा का त्याग कर सकते हैं, पर अरिहंत परमात्मा का जीवदल ही ऐसा उच्चकोटि का है कि उनको जागृत करने की कोई जरूरत ही नहीं पड़ती । उनकी अपनी जागृति विशिष्ट कोटि की होती है । संयम जीवन के प्रारंभ से ही गुरु के उपदेश के बिना भी वे निरतिचार संयम जीवन का पालन स्वयं करते हैं। दूसरे जीवों को समय परिपक्व होने के बाद भी गुरु उपदेशादि निमित्त की आवश्यकता पड़ती है । परमात्मा को निमित्त की आवश्यकता नहीं पड़ती । कभी ऐसा देखने को मिलता है कि नयसार के भव में मुनि के उपदेश से परमात्मा ने सम्यग्दर्शन को प्राप्त किया, परन्तु वहाँ निमित्त गौण ही होता है। परमात्मा की योग्यता ही उसमें मुख्य कारण होती है । अरिहंत की आत्मा स्वप्रयत्न से जो सम्यक्त्व पाती है, वह सम्यक्त्व भी सामान्य जीवों की अपेक्षा विशिष्ट कोटि का होता है, इसलिए ही उसे वरबोधि कहते हैं। उनका सम्यक्त्व ही इस प्रकार का होता है कि जो 24.इस पद द्वारा जो मानते हैं कि, 'महेशानुग्रहाद् बोधनियमौ' बोध एवं नियम अर्थात् सम्यग्ज्ञान एवं सत्क्रिया की प्राप्ति महेश के अनुग्रह से ही होती है, वैसे सदाशिववादी का मत अमान्य ठहरता है, क्योंकि महेश का अनुग्रह भी योग्य आत्माओं को ही असर करता है । आत्मा की योग्यता के बिना महेश भी कुछ नहीं कर सकते । ज्ञान एवं क्रिया की प्राप्ति में स्व-योग्यतारूप उपादान कारण भी जरूरी है। 25.वैसे-वैसे द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव को पाकर मोक्ष जाने की योग्यता को तथाभव्यत्व कहते हैं। तथाभव्यत्व में विशिष्ट कोटि का भव्यत्व, सबका भव्यत्व भिन्न-भिन्न कोटि का होता है । इसलिए हरेक भव्य जीव भिन्न-भिन्न द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव को पाकर मोक्ष में जाता है । भिन्न-भिन्न द्रव्यादि की प्राप्ति में कारणभूत जो भव्यत्व है, वही तथाभव्यत्व है ।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy