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नमोत्थुणं सूत्र इस देशना को सुनकर अनेक भव्य आत्माएँ सत् ज्ञान एवं सत्क्रिया (चारित्र) का स्वीकार करती हैं । उसके द्वारा भीषण भवसागर को पार करती हैं । इस तरह परमात्मा का प्रवचन भयंकर संसार सागर से तारनेवाला होता है, इसलिए उसे तीर्थ कहते हैं ।
सर्वप्रथम परमात्मा गणधर पद के योग्य आत्माओं द्वारा पूछे हुए प्रश्न के उत्तर के रूप में त्रिपदी का उपदेश देते हैं। बीज बुद्धि के स्वामी गणधर भगवंतों को परिमित शब्दों में दी गई इस त्रिपदी द्वारा समग्र विश्व व्यवस्था का बोध होता हैं, सब जीवों के हिताहित को भी जानते हैं और उसके आधार पर द्वादशांगी की रचना करते हैं। इस द्वादशांगी को प्रभु प्रमाणित करते हैं एवं उनके शासनकाल तक इस द्वादशांगी को पाकर अनेक आत्माएँ भवसागर पार करती हैं, इसलिए द्वादशांगी को तीर्थ कहते हैं ।
प्रवचन किसी आधार के बिना नहीं रह सकता, इसलिए साक्षात् प्राप्त हुए या द्वादशांगी आदि ग्रंथों द्वारा प्राप्त हुए भगवान के वचन जिसके हृदय में परिणत होते हैं अर्थात् वचन के अनुरूप विरति के परिणाम जिनमें प्रकट होते हैं, वैसे प्रवचन के आधारभूत साधु-साध्वी-श्रावक एवं श्राविका रूप चतुर्विध संघ भी तीर्थ हैं । इन दोनों तीर्थो को बनानेवाले परमात्मा है, इसलिए उन्हें तीर्थंकर कहते हैं ।
यह पद बोलते हुए तीर्थ के प्रवर्तन द्वारा जिन्होंने अपने ऊपर अनन्य उपकार किया है, उन तीर्थंकर परमात्मा को नजर के समक्ष लाकर नमस्कार करते हुए ऐसी आशंसा करनी चाहिए -
“हे नाथ ! आपके द्वारा प्रवर्तित तीर्थ का अवलंबन लेकर मैं भी
शीघ्र संसार सागर पार कर सकूँ, वैसा सामर्थ्य दीजिये ।” ऐसे भावपूर्वक किया हुआ नमस्कार तीर्थ के आलंबन की प्राप्ति में विघ्नकारक कर्म का विनाश करवाकर, भगवान के वचन के अनुसार चलने का पूर्ण सामर्थ्य देता है ।