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श्री नमस्कार महामंत्र
के कारण संसारी जीव को नित्य नई-नई इच्छाओं रूपी खुजली पैदा होती है । फिर उन इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए जीव यथाशक्ति प्रयत्न करता है । उसमें उसको मेहनत करनी पड़ती है, व्यथा होती है, वह विह्वल भी होता है । इन सभी दुःखों के बाद अंत में इच्छा पूरी होने पर वह आनंदित हो जाता है एवं मुझे सुख मिला ऐसा संतोष मानता है ।।
वास्तव में यह सुख नहीं, सुखभास है । मात्र इच्छा, व्यथा के नाशरूप क्षणिक दुःख का प्रतिकार है । मोहनीयकर्म की प्रबलता संसारी जीव को यह समझने ही नहीं देती कि उत्पन्न हुई ये इच्छाएँ ही रोग हैं । इनके कारण आत्मा सच्चे सुख को कभी भी प्राप्त नहीं कर सकती । जब कि सिद्ध भगवंतो ने तो मात्र मोहनीय कर्म का ही नहीं, परन्तु सर्व कर्मरूपी रोगों का नाश किया होता है । इसलिए उनको ऐसे क्षणिक, दुःख मिश्रित एवं मात्र काल्पनिक सुख की आवश्यकता नहीं होती बल्कि उनको तो निरंतर, दुःख के अभाववाला, वास्तविक, ऐकांतिक एवं आत्यंतिक अनंत सुख की प्राप्ति होती है ।
जिनका मोह मंद हुआ हो, वैसे योगी पुरुष ऐसे सुख का आंशिक अनुभव कर सकते हैं और इसलिए वास्तविक अर्थ में ऐसे योगी ही सिद्ध परमात्मा को समझकर उनकी भक्ति कर सकते हैं, कोई और नहीं । 'हाँ' योगी होने की इच्छावाले और मोहनीयकर्म का त्याग करने की भावनावाले भी सिद्ध परमात्मा की भक्ति करें, तो अवश्य लाभ हो सकता है ।।
ऐसे सर्व गुणसंपन्न सिद्ध परमात्मा को स्मृति पटल में केन्द्रित कर, यदि उनको भावपूर्वक नमस्कार किया जाए, तो धीरे-धीरे अपनी चेतना भी आकुलता के बिना स्थिर सुख के लिए प्रयत्न करने लगती है एवं उसके फलस्वरूप हमें भी सिद्धभाव की प्राप्ति हो सकती है । सिद्धों का उपकार :
लोक व्यवस्था इस प्रकार की है कि, कोई भी एक जीव जब सिद्धिगति को प्राप्त करता है, तब एक जीव अव्यवहार राशि में से निकलकर व्यवहार