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सूत्र संवेदना
२३-२४-२५. मन दंड, वचन दंड, काय दंड परिहरु :
मन के अशुभ विचार या जिनके कारण आत्मा को दुर्गति आदि का दंड भुगतना पडे, वह मनोदंड है । स्व या पर को पीड़ा हो वैसी वाणी का असभ्य व्यवहार, वचन दंड है एवं काया से होनेवाली हिंसा आदि की प्रवृत्ति जो आत्महित के लिए बाधक बनती है, वह काय दंड है, ऐसे मन, वचन एवं काय के दंड का में त्याग करता हूँ । इन बोलों के द्वारा साधक ऐसा विचार करता है ।
मन, वचन एवं काया के दंड का परिहार भी कषाय एवं नो-कषाय के त्याग से संभव है । इसलिए कहते हैं...
२६-२७-२८. हास्य-रति-अरति-परिहरु :
हास्य भी एक प्रकार का विकार है । निमित्त मिलने पर या बिना निमित्त हास्य करना, इष्ट वस्तु की प्राप्ति होने पर उसमें रति का भाव करना एवं अनिष्ट वस्तु की प्राप्ति होने पर उसमें अरति का भाव रखना, वह हास्य, रति एवं अरतिरूप नोकषाय है । इन नोकषायों का परिणाम भी आत्मा के लिए घातक है । आत्मा उनसे दंडित होती है । इनसे मलिन कर्मों का बंध होता है। इसलिए इन बोलों द्वारा आत्मा में पड़े हुए मलिन भावों का स्मरण कर साधक उनको त्याग करने का संकल्प करता है । २९-३०-३१. भय-थोक-जुगुप्सा परिहरूं :
अनिष्टकारक तत्त्वों को देखते हुए उत्पन्न हुए भय, इष्ट वस्तु या व्यक्ति के वियोग से होता हुआ शोक एवं खराब वस्तु जैसे कि, विष्टादि के प्रति जुगुप्सा । उन सब भावों का भी मैं त्याग करता हूँ । भय, शोक एवं जुगुप्सा इन नोकषयों का परिणाम भी आत्मा को मलिन करनेवाला होने से, इन बोलों द्वारा आत्या में रहे हुए इन भावों को याद करते हुए साधक उनके त्याग की भावना व्यक्त करता है ।