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मुहपत्ति पडिलेहन की विधि
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१४-१५-१६. ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदरूं :
छोड़ने योग्य क्या हैं एवं अपनाने योग्य क्या हैं इसको. जानना ज्ञान है, उसमें श्रद्धा करना दर्शन है एवं उसके अनुरूप क्रिया करनी वह चारित्र है । 'इस ज्ञान, दर्शन, चारित्र के प्रति मैं हृदय से आदर रखं । इन तीनों गुणों को पाने के लिए मैं शक्य प्रयत्न करूँ' ऐसा संकल्प यह बोल बोलते हुए साधक करता है।
इस तरीके से ज्ञानादि गुणों के प्रति आदर प्रकट करते हुए उनकी विराधना से भी अटकने का मन होता है । इसलिए कहते हैं, १७-१८-१९. ज्ञान विराथना-दर्शन विराथना-चारित्र विराथना परिहरु :
ज्ञानी पुरुषों या ज्ञान के साधनों, सम्यग्दृष्टि आत्मा या सम्यग्दर्शन के साधनों एवं चारित्र संपन्न आत्मा या चारित्र के किसी भी उपकरण की विराधना का मैं त्याग करूँगा अर्थात् उनकी विराधना मुझसे ना हो, इसका मैं सतत ख्याल रखूगा ।
ज्ञानादि गुणों की या उनके साधनों की विराधना तब बचा जा सकता है जब मन-वचन-काया काबू में हो.... इसलिए कहते हैं कि... २०-२१-२२. मनोगुप्ति-वचनगुप्ति-कायगुप्ति आदरू :
मन को अशुभ विचारों से रोकना मनोगुप्ति है, आत्मा के लिए अहितकर ऐसे वचन न बोलना वचनगुप्ति है एवं निरर्थक काया के व्यापारों को रोकना कायगुप्ति है । किसी भी गुण की विराधना ना हो, इसलिए इन तीन प्रकार की गुप्ति का मैं आदर करता हूँ । यथाशक्ति प्रयत्न से खुद की आत्मा को तीन गुप्ति में ही रखने का, ये बोल बोलते हुए, साधक संकल्प करता है ।
तीन प्रकार की गुप्ति के प्रति तभी आदर हो सकता है, जब मन, वचन, काया से आत्मा को दंड मिले ऐसा कार्य न हो । इसलिए कहते हैं कि...