________________
सामायिक लेने की विधि
२६१
मानना, समता है । सुख एवं दुःख भी अपने किए हुए कर्म के ही फल हैं । कर्म से प्राप्त हुआ यह सुख या दुःख उसका समय पूर्ण होने पर मिट जानेवाला है । ऐसा सोचकर शत्रु-मित्र, सुख-दुःखादि के प्रति समभाव बनाये रखने का यत्न करना, सामायिक है ।
निरभिष्वंग चित्त - मोहाधीनता के कारण जब तक विपरीत मान्यताएँ विद्यमान रहती हैं, तब तक जीव अपने अनुकूल वस्तु या व्यक्ति के ऊपर राग करता है और प्रतिकूल वस्तु या व्यक्ति पर द्वेष करता है । यह रागद्वेष वाला परिणाम अभिष्वंग युक्त परिणाम है । इससे युक्त चित्त अभिष्वंगवाला चित्त कहलाता है एवं राग-द्वेष रहित चित्त निरभिष्वंगचित्त कहलाता है। अभिष्वंग के परिणाम के कारण साधक व्यथित रहता है । विह्वल एवं व्यग्र चित्तवाला बनता है । प्रारंभिक भूमिका में शायद सर्वथा अभिष्वंग से दूर न रह पाएँ, तो भी सामायिक में अभिष्वंग भाव का त्याग कर, साधक को सर्व स्थानों में निरभिष्वंग चित्त से रहने का यत्न करना चाहिए क्योंकि कहीं भी आसक्त हुआ चित्त समभाव में नहीं रह सकता। इसलिए समभाव की साधना करने की इच्छावाले साधक को किसी भी पदार्थ में कहीं भी आसक्ति न हो जाए, उसकी पूरी सावधानी रखनी चाहिए एवं मन को स्वाध्यायादि में इस तरह लगाना चाहिए कि जिससे अन्य भाव में चित्त न जाए एवं जाए तो भी श्रुत से प्रकट होनेवाला आत्मिक आनंद उसे उसमें आसक्त होने नहीं दे ।
औचित्य प्रवृत्ति प्रधान वर्तन - समभाव को साधने में जैसे निरभिष्वंग (अनासक्त) चित्त जरूरी है, वैसे ही सामायिक में जिस समय जो उचित हो वैसी प्रवृत्ति करना भी अत्यंत आवश्यक है । सामायिक के दौरान गुरु विनयवैयावच्च-वाचना-पृच्छना-परावर्तना आदि कार्य करने से काषायिक वृत्तियों का नाश होता है । कषायों की मंदता या नाश किए बिना प्रायः जीव तात्त्विक
औचित्य का विचार नहीं कर सकता एवं कषाय के अभाववाली आत्मा कहीं भी अपना औचित्य नहीं चूकती । इसलिए, सामायिकवाली आत्मा औचित्य का पालन करनेवाली होती है ।