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सामाइयवय जुत्तो सूत्र
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है क्योंकि, विनय ही सामायिक के भाव को उत्पन्न करवाने का प्रबल साधन है । इसीलिए सामायिक करनेवाली आत्मा को विजय संपन्न बनकर इस दोष का नाश करना चाहिए ।
३. अबहुमान : सामायिक संपन्न गुरु भगवंत, सामायिक के सूत्रों एवं सामायिक के परिणाम - इन तीनों के प्रति अत्यंत आदर रखना वह बहुमान का भाव है । इसका अभाव ‘अबहुमान' दोष है।
सामायिकादि के प्रति बहुमान, तो उसी आत्मा को हो सकता है जिसे सामायिक सर्वश्रेष्ठ तत्त्व लगता हो । रत्न चिंतामणी से भी अधिक इसका मूल्य है, ऐसा महसूस होता हो । इसके अतिरिक्त वह समझता हो कि भगवान ने जैसी सामायिक कही है, वैसी सामायिक अगर मुझे पूर्व में प्राप्त हुई होती तो इस अनादिकालीन संसार भ्रमण का नाश कब का हो गया होता । तात्त्विक सामायिक ही संसार के नाश का कारण है, ऐसा जिसको समझ में आता है, उसे ही सामायिक संपन्न गुरु, सामायिक सूत्रों तथा सामायिक के परिणाम के प्रति बहुमान भाव हो सकता है । इसके सिवाय 'अबहुमान' नामक दोष है, ऐसा समझना चाहिए ।
४. रोष : सामायिक करते समय किसी की अयोग्य प्रवृत्ति के कारण उसके प्रति अरुचि - घृणा या क्रोध करना अथवा सामायिक करने के लिए बार बार प्रेरणा करनेवाले पर रोष में आकर सामायिक करना अथवा क्रोध के भाव में रहते हुए ही सामायिक करना यह 'रोष' नाम का दोष है । इसलिए किसी भी संयोग में सामायिक में रोष न हो ऐसा संकल्प करके सामायिक करने बैठना चाहिए ।
५. गर्व : मैं रोज सामायिक करता हूँ । मैं सुंदर विधिपूर्वक सुव्यवस्थित सामायिक करता हूँ । ऐसा अहंभाव गर्व नामक दोष है । इस दोष से बचने के लिए साधक को सामायिक के पहले सोच लेना चाहिए कि कोई मुझे धर्मी कहे या महान कहे; इतने मात्र से मैं धर्मी या महान् नहीं बनूंगा, परन्तु मान को त्यागकर ही मैं महान बन सकता हूँ । इसलिए व्यक्त या अव्यक्त मान का अर्थात् गर्व का त्याग करने के बाद ही मुझे सामायिक करनी चाहिए ।