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________________ २४२ सूत्र संवेदना दस मन के, दस वचन के, बारह काया के ये बत्तीस दोषों में से कोई दोष लगा हो तो, उन सब का मैं मन, वचन, काया से मिच्छा मि दुक्कडं देता हूँ । विशेषार्थ : सामाइयवय-जुत्तो जाव मणे होइ नियम-संजुत्तो छिन्नइ असुहं कम्म सामाइय जत्तियावारा : जब तक और जितनी बार सामायिक व्रत से युक्त (श्रावक) मन में नियम से संयुक्त होता है (तब तक और उतनी बार) वह अशुभ कर्मों को छेदता है । सामायिक की प्रतिज्ञा रूप नियम को स्वीकार करने के बाद जब तक मन में सावध प्रवृत्ति नहीं करने का एवं समताभाव का सेवन करते हुए तप-संयम या स्वाध्याय में रहने का परिणाम होता है अर्थात् जब तक मन सामायिक के भाव से युक्त होता है, तब तक हर एक क्षण, अज्ञानअविवेक आदि दोषों के कारण पूर्व में बंधे हुए एवं भविष्य में महादुःखों को देनेवाले कर्मों का नाश होता है । सामाइयवय-जुत्तो : ‘करेमि भंते' सूत्र बोलकर सामायिक की प्रतिज्ञा को स्वीकार करके जो श्रावक स्वाध्याय, जाप, ध्यान, कायोत्सर्ग, भावना आदि द्वारा समताभाव को पाने का यत्न कर रहा हो, उसे सामायिक व्रत से युक्त कहा जाता है । जाव मणे होइ नियम-संजुत्तो : सामायिक व्रत को स्वीकार करने के बाद जब तक मन सामायिक से जुड़ा हुआ है अर्थात् जब मन सामायिक की मर्यादा के बाहर के विचारों से घिरा हुआ नहीं होता, तब तक अशुभ कर्मों का नाश होता है। जिज्ञासा : सामायिक व्रत का स्वीकार मन-वचन-काया इन तीनों योग से किया था । इसलिए व्रत का अच्छी तरह पालन करने के लिए तीनों योगों का योजन जरूरी है । तो फिर यहाँ ‘मन नियम से युक्त है' ऐसा कहकर केवल मन को महत्त्व क्यों दिया गया है ।
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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