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________________ द्वारा आत्मा को कैसी निर्मल बनानी चाहिए वह सिखाने के लिए दिया था। वे हमेशा कहती थी कि इन सूत्रार्थ के ज्ञान के द्वारा तुम्हें क्रिया करते हुए कैसे भाव करना, कैसी संवेदनाओं का अनुभव करना, यह खास समझना है। उनका लक्ष्य हमेशा क्रिया को आत्मलक्षी बनाने का रहता। क्रिया के पूर्व आत्मशुद्धि या मोक्षप्राप्ति का प्रणिधान हो तो ही क्रिया सुयोग्य बने - ऐसा वे बारबार कहती थी। __ चिंताओं का समाधान सामने था, परन्तु क्षयोपशम की अल्पता के कारण मुझे तो बहुत चिंता होती थी कि मैं इस अर्थ को किस प्रकार स्मृति में रखू एवं इसे क्रिया करते समय किस तरह से प्रेषित करूँ ? इसलिए साहेब से विनंती की कि, आप इस अर्थ का भावपूर्ण लेखन कर दीजिए तो हम इसका बारबार पठन-मनन कर सकें एवं उसके आधार से हमारा प्रयत्न भी थोड़ा सफल बन सके । कृपालु गुरुदेव ने हमारी विनती स्वीकार करके लेख तैयार कर दिया। आपने जितनी मेहनत करके लेख तैयार किया, उतनी या उससे अधिक मेहनत यदि हम धर्म क्रिया में करें तो थोड़ा-सा ऋणमुक्त हो सकते हैं। इसके अलावा ऋणमुक्ति का अन्य उपाय नहीं मालूम। प्रत्यक्ष में जितना मिला है, उसके सामने लेखनी से प्राप्त हुआ ज्ञान अत्यंत अल्प है, तो भी यह ज्ञान बहुतों को सक्रिया में उपयोगी बनेगा, ऐसा विचारकर ही मैंने यह लेखन प्रकाशित करवाने का निर्णय लिया है। इस प्रकाशन के माध्यम से जो ज्ञान मुझे मिला है, वह ज्ञान अनेक तत्त्वजिज्ञासु आत्माओं तक पहुँचे एवं वे इसका बहुत लाभ लें यही अंतर की इच्छा है। आप सब तक इस लेखन को पुस्तकाकार में पहुँचाने के लिए अनेक पुण्यात्माओं ने अलग-अलग तरीके से मेहनत की है। । पू.सा.श्री चन्दनवालाश्रीजी म.सा.ने अस्वस्थ होते हुए भी बहुत समय देकर प्रूफ रीडिंग का कार्य किया है, इसके लिए मैं उनकी ऋणी हूँ।
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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