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सूत्र संवेदना
में शास्त्र वचनों को गुरु भगवंत से जानकर, उन्हें स्थिर कर लेना चाहिए, क्योंकि तभी प्रतिज्ञा का पालन यथायोग्य रीति से हो सकता है ।
जिज्ञासा : सामायिक का परिणाम प्रकट करना भी दुष्कर है और टिकाना भी दुष्कर है । ऐसा दुष्कर कार्य कौन कर सकता है ?
तृप्ति : जिसे संसार के अविरति के याने की असंयम के परिणाम खटकते हों, ‘अविरति का या असामायिक का परिणाम कलुषित परिणाम है। ऐसे परिणामवाली अवस्था मेरी आत्मा की मलिन अवस्था है, अविरति का परिणाम मुझे पीड़ा देनेवाला है, असामायिक के परिणाम के कारण ही मुझे कर्मबंध कर संसार में भटकना पड़ता है,' ऐसा जिसकी बुद्धि में स्पष्ट हो वैसी आत्मा ही सामायिक के दौरान अपने आप को सामायिक के उपयोग में रखने का प्रयत्न कर सकती है । जिन्हें उपर्युक्त कोई भाव नहीं होता, वे तो मात्र धर्म बुद्धि से, द्रव्य से, सामायिक की क्रिया करते हैं उन्हें सामान्य से पुण्य बंध होता है । परन्तु सामायिक के महाआनंद को वे प्राप्त नहीं कर सकते ।
इस पद का उच्चारण करते समय साधक जगत् की सभी पाप प्रवृत्तियों को याद करके दो घडी के लिए इनमें से कोई भी पाप मुझे नहीं करना है ऐसा संकल्प करने के साथ सोचता है,
‘मेरा कैसा सद्भाग्य है कि मुझे जैन शासन मिला और उसमें भी और किसी भी अनुष्ठान के साथ जिसकी तुलना नहीं हो सकती, ऐसा सामायिक व्रत मिला । इस अनुष्ठान को मैं इस तरह निष्पन्न करूँ कि मैं समता के सुख का आंशिक तौर से भी अनुभव कर पाऊँ'
सामायिक करने के लिए प्रथम सावद्य योग के त्याग की प्रतिज्ञा की, अब प्रतिज्ञा का काल बताते हैं ।
जाव नियमं पज्जुवासामि : जब तक मैं नियम का पालन करता हूँ ।