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________________ २२८ सूत्र संवेदना यह पद भविष्य के पाप-व्यापार का त्याग सूचित करता है । श्रावक जितने समय सामायिक में रहता है, उतने समय के भविष्यकाल संबंधी सावध योगों का त्याग करता है एवं मुनि भगवंत 'सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि' बोलकर आजीवन सर्व सावद्य योगों को न करूँगा, न करवाऊँगा एवं उनकी अनुमोदना नहीं करूँगा याने उसको अच्छा नहीं मानुंगा; इस प्रकार से त्याग करते हैं। 'सावज्जं' 'जोगं' का विशेषण है । सावध समझने के लिए पहले अवद्य की व्याख्या समझनी पड़ेगी । 'वदितुम् अयोग्य इति अवद्यः' - जो बोलने योग्य नहीं होता, उसे अवद्य कहते हैं अर्थात् जो कार्य गर्हित है, निंदित है, पाप स्वरूप है, जिसे करने के बाद सज्जन पुरुष दूसरों को बताने में संकोच करते हों, उन्हें शर्म आती है वह कार्य अवद्य है । ऐसे अवद्य सहित जो हो, वह सावध कहलाता है अथवा सावध अर्थात् अप्रशस्त प्रकार के कषाय के कारण होनेवाली किसी भी प्रकार की अनुचित प्रवृत्ति सावध प्रवृत्ति है । जोगं = योग शब्द 'युज्' धातु से बना है । वह जोड़ने के अर्थ में प्रयोग होता है । आत्मा जिसके द्वारा चलने आदि की क्रिया के साथ जुड़ती है वह योग, अथवा जिससे आत्मा कर्म के साथ जुड़ती है, वह योग है । मन, वचन एवं काया के व्यापार ही आत्मा को सोचनेवाली, बोलनेवाली, चलनेवाली क्रिया के साथ या कर्म के साथ जोड़ते हैं । इसलिए मन, वचन, काया के व्यापार योग कहलाते हैं । ये योग दो प्रकार के होते हैं - प्रशस्त एवं अप्रशस्त सम्यक्त्वादि गुणों की प्राप्ति के लिए किया हुआ वीर्य व्यापार प्रशस्त योग है एवं संसार की वृद्धि के लिए प्रवृत्त वीर्य अप्रशस्त योग है । अप्रशस्त योग सावध योग है । अगर मात्र योगों के त्याग की प्रतिज्ञा की जाए, तो मन-वचन-काया के सर्व योगों का त्याग करना पड़ता है, परन्तु प्रस्तुत में सर्व योगी का त्याग अपेक्षित नहीं है, मात्र आत्मा का अहित करनेवाले सर्व सावंद्य योगों का ही त्याग करना अभीष्ट है । सर्व योगों का 6. वि.आ.भा.मा. २ गाथा ३४९८ से ३५०१
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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