SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 24 गुर्जर भाषा में प्रकाशित प्रथम आवृत्ति के प्रकाशक के हृदय की बात.... संसार की विषम परिस्थितियों में से गुजरते हुए दुःखमय संसार की असारता तो अपने आप समझ में आ जाती है, परन्तु पुण्योदय से जब सद्गुरु का योग होता है तब ही सुखमय संसार भी असार है, ये बात गंभीरता से समझी जाती है। हमारे कोई उत्कृष्ट पुण्योदय से जैन शासन सिरताज तपागच्छाधिराज परम पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचंद्र - सूरीश्वरजी महाराज का सुयोग मिला। उनकी अमृतमय वाणी का पान करते हुए समझ में आया कि संसार का सुख मिथ्या है एवं निरंतर सुख तो मोक्ष में ही है और मोक्ष की प्राप्ति शास्त्रानुसारी प्रवृत्ति से ही होती है । इस कारण से ही शास्त्राभ्यास करने का मन बहुत बार होता था । परन्तु प्रमादादि के कारण से साकार नहीं हो सका। एक बार देव- गुरु की परम कृपा से अनायास प्राप्त हुए शुभ मुहूर्त में परम विदुषी चंद्राननाश्रीजी महाराज साहेब का सुयोग प्राप्त हुआ । प्रथम दर्शन से ही शास्त्राभ्यास करने की सुषुप्त इच्छा जागृत हुई । हृदय की बात होठों पर आ गई । वात्सल्य की साक्षात् मूर्ति ऐसी उन्होंने मेरी भूमिका का विचार करके मुझे 'जय वीयराय' सूत्र का अर्थ करवाने की शुरुआत की। पहले दिन ही मैं धन्य हो गई। अभ्यास चालू रखने का संकल्प किया। उनकी अस्वस्थता के कारण मेरा पाठ उन्होंने परम पूज्य सा. प्रशमिताश्रीजी महाराज को सौंपा और कई श्राविकाओं के संग हमारा नियमित अभ्यास शुरु हुआ। २५ * उस समय मेरी उम्र के चालीस वर्ष बीत गये थे। धर्म करने का समय जैसे बहता जा रहा था । मेरी एवं मेरे साथ अभ्यास के लिए आती मेरी बेटियाँ तथा दूसरी जिज्ञासु बहनों के बीच उम्र की दृष्टि से विषमता होते हुए भी साक्षात् गणधर भगवान की वाणी का मर्म पूज्य श्री इतनी सूक्ष्मता एवं सरलता से समझाते थे कि उम्र, संस्कार एवं क्षयोपशम की मर्यादा को
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy