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सूत्र संवेदना
सागरवरगंभीरा : श्रेष्ठ समुद्र (स्वयंभूरमण समुद्र) जैसे गंभीर ।
समुद्रों में सबसे श्रेष्ठ स्वयंभूरमण समुद्र है । एक राजलोक प्रमाण ति लोक में अर्ध राजलोक में असंख्य, द्वीप और समुद्र हैं और बाकी के आधे राजलोक में मात्र स्वयंभूरमण समुद्र है । इस प्रकार यह कद में सबसे बड़ा और अतिगंभीर है । किसी भी प्रकार के उपद्रवों से क्षोभायमान होने पर भी उसका जल अपनी मर्यादा के बाहर नहीं जाता।
परमात्मा की गंभीरता स्वयंभूरमण समुद्र से भी अधिक है, क्योंकि स्वयंभूरमण समुद्र तो पवन आदि की प्रतिकूलता में विचलित हो जाता है। जब कि परमात्मा तो घोर उपसर्गों अथवा परिषहों में लेश मात्र भी विचलित नहीं होते । वे अपने स्वभाव में ही स्थिर रहते हैं अथवा स्वयंभूरमण समुद्र जैसे अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता, वैसे भगवान् भी अपने स्वभाव से विभाव में नहीं जाते ।
कहा जाता है कि, समुद्र गंभीर होने के कारण सब कुछ संग्रह करता है, किसी भी चीज को अपने अन्दर में समा लेता है, फिर भी वह कभी मुर्दे को ग्रहण नहीं करता । जब कि परमात्मा जगत् के तमाम अशुभ भावों, एवं दोषों को जानते हैं, देखते हैं, फिर भी उन भावों का लेश मात्र भी असर उनके मन पर या मुख पर नहीं होता । तमाम दोषों को अपने ज्ञान में समा लेते हैं, इसलिए भगवान सागर से भी गंभीर हैं ।
सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु : हे सिद्ध भगवंतो ! मुझे सिद्धि प्रदान करें ।
कर्ममल रहित, केवलज्ञानी और अति गंभीर हे सिद्ध भगवंतो ! मुझे महाआनंद स्वरूप, महोत्सवरूप, अनंत सुख के धाम स्वरूप सिद्धि = मोक्ष प्रदान करें।
अरिहंत भगवंत चार अघाती कर्मवाले हैं, इसलिए वैसे तो उन्हें सिद्धि की प्राप्ति नहीं हुई, फिर भी उन्हें सिद्धि की प्राप्ति हो चुकी है, ऐसा भाव