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________________ १९४ सूत्र संवेदना न हो तो बाहर के कोई शत्रु दुःख दे ही नहीं सकते, इसी कारण बाहर के शत्रु वास्तव में शत्रु नहीं हैं । अनादिकाल से जीव इन आंतरशत्रुओं के अधीन हैं । ये आन्तरशत्रु जैसी प्रवृत्तियाँ करवाते हैं, जीव वैसी ही प्रवृत्तियाँ करता है । इन शत्रुओं के शिकंजे में फँसा हुआ जीव स्वयं के हिताहित का विचार नहीं कर पाता। रागादि के निमित्त सामने आते ही उसके अधीन बन जाता है, पर कभी रागादि को खुद के अधीन नहीं बना सकता। ऋषभादि चौबीसों तीर्थकरों ने इन रागादि शत्रुओं को पहचानकर उनको निर्मूल कर दिया है, इसलिए ऋषभादि चौबीसों तीर्थंकर रागादि को जीतनेवालें जिन कहलाते हैं। इस पद का उच्चारण करते हुए साधक सोचता है, "हे प्रभु ! आपने तो रागादि शत्रुओं को जीत लिया है, पर मैं उनके शिकंजे में फँसा हुआ हूँ। आपको वंदन कर मैं उन महा भयंकर शत्रुओं को जीतने का सामर्थ्य चाहता हूँ । अरिहंते कित्तइस्सं : अरिहंतों का मैं कीर्तन करूँगा। जिन्होंने रागादि शत्रुओं का नाश किया है, जिन्हें अब जन्म नहीं लेना है, जिनका अब बार बार जन्म नहीं होगा तथा जो अशोकवृक्ष, सुरपुष्पवृष्टि आदि अष्ट महाप्रातिहार्य, रजत-सुवर्ण-रत्न से निर्मित देदीप्यमान समवसरण, चलते समय पैर के नीचे जमीन पर नौ मुलायम सुवर्ण कमल वगैरह की शोभा रूप पूजा (भक्ति) के योग्य हैं, उन्हें अरिहंत कहा जाता है । ऐसे चौबीस तीर्थंकरों का मैं कीर्तन करूँगा अर्थात् नामपूर्वक मैं अरिहंत का स्तवन करूँगा । चउवीसंपि केवली: केवलज्ञान को धारण करनेवाले चौबीस और अन्य भी अरिहंतों का मैं कीर्तन करूँगा । घातीकर्मों का नाश कर जिन्होंने केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त किया 2. अरिहंत का विशेष स्वरूप नवकार में से देखें ।
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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