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लोगस्स सूत्र
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वा' यह त्रिपदी प्रदान करते हैं । इस त्रिपदी को सुनकर प्रचंड प्रतिभा के स्वामी, बीजबुद्धि के स्वामी, गणधर भगवंत द्वादशांगी की, रचना करते हैं । परमात्मा उसके ऊपर मुहर लगाते हैं । इस द्वादशांगी के आधार अनंत आत्माएँ संसार सागर पार कर चुकी हैं और पार कर रही हैं, इसलिए द्वादशांगी भी भावतीर्थ हैं ।
श्रुत के सहारे जैसे भूतकाल में अनंत आत्माएँ दुष्कर भवसागर पार कर चूकी हैं, वैसे ही वर्तमान में भी जिन्होंने भगवान के वचनों का आलंबन लिया है, उन का यह संसार बहुत बिगाड़ नहीं सकता। वे तो श्रुतधर्म के आलंबन से पुण्यानुबंधी पुण्य बांधकर, उत्तम सद्गति की परंपरा को प्राप्त कर, अंत में सर्व कर्म का क्षय करके मोक्षसुख को प्राप्त करते हैं ।
प्रवचन की तरह प्रवचन जिसमें प्रतिष्ठित है, वैसा श्रमणप्रधान चतुर्विध संघ भी भावतीर्थ कहलाता है, क्योंकि इस श्रमणप्रधान चतुर्विध संघ के सहारे भी भव्यात्माएँ संसार सागर पार कर सकती हैं । इस पद का उच्चारण करते हुए साधक सोचता है,
“प्रभु ने धर्मतीर्थ की स्थापना कर दुर्गति में गिरते हुए मेरे जैसे अनेकों का उद्धार करने का यत्न किया है; परन्तु मैंने आज तक धर्मतीर्थ का शरण नहीं लिया । इसलिए भवसमुद्र में एक गति से दूसरी गति में भटक रहा हूँ । हे प्रभु ! आपकी वंदना द्वारा मैं चाहता हूँ कि धर्मतीर्थ का शरण स्वीकार कर सद्गति की परंपरा द्वारा शिवगति को प्राप्त करूँ ।'
जिणे : जिनों को,
राग-द्वेषादि समस्त आन्तर शत्रुओं अर्थात् भावशत्रुओं को जीतनेवाले, जिन कहलाते हैं । राग-द्वेष और मोह आत्मा में रहकर ही आत्मा का अनर्थ करते हैं, इसीलिए उन्हें आंतरशत्रु कहा जाता है । ये शत्रु ही दुःखदायी हैं, इसीलिए वे वास्तविक शत्रु हैं। अगर इन शत्रुओं की उपस्थिति