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लोगस्स सूत्र
दर्शन करने के बाद उन्होंने भव्य जीवों को जीव और जड़ का भेद बताया, आत्मा के लिए हितकर और अहितकर का बोध करवाया, आत्मा को सच्चे सुख की प्राप्ति कहाँ से होगी और क्या करने से आत्मा दुःखी होती है, उसका भी ज्ञान प्रदान किया ।
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अनादिकाल से अज्ञान के कारण आत्मा, 'जड़ में सुख है', ऐसी मान्यता रखती है । परमात्मा के वचनों से आत्मा की यह मिथ्या मान्यता दूर होती है और उसे ज्ञान होता है कि पर वस्तु कभी अपनी नहीं हो सकती । जड पदार्थ कभी सुख नहीं दे सकते । ऐसा ज्ञान होते ही योग्य आत्मा अहित के मार्ग से हटकर हित में प्रवृत्ति करने लगती है ।
यदि परमात्मा ने अपने ज्ञान से संसार की वास्तविकता न बताई होती, तो अनंत आत्माएँ कभी स्वयं का हित नहीं कर पाती और अनंत काल तक संसार में उनका परिभ्रमण चालू ही रहता । यह पद बोलते हुए परमात्मा के इस महान उपकार को याद करना है ।
लोक को तो सूर्य, चंद्र भी प्रकाशित करते हैं, परन्तु वे तो मात्र बाह्य जगत् और परिमित क्षेत्र को प्रकाशित करते हैं, जब कि परमात्मा तो बाह्य और अभ्यंतर दोनों जगत् का यथार्थ स्वरूप देखते हैं और उसे जगत् के जीवों को उपकारक बने, उस तरह बताते भी हैं ।
जिज्ञासा : भगवान को सिर्फ लोक को उद्योतित करनेवाले क्यों बताए ? लोक के अलावा उससे असंख्य गुणा अधिक बडा अलोक है; तो क्या भगवान उसे प्रकाशित नहीं करते ?
तृप्ति : लोक शब्द का अर्थ जैसे चौदह राजलोक हैं, वैसे षड्द्रव्यात्मक लोक भी होता है । छ द्रव्य अर्थात् धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय और काल । छ द्रव्य में आकाशद्रव्य लोक और अलोक में सर्वत्र होता हैं । इसलिए अरिहंत परमात्मा लोक- अलोक सर्व को देखनेवाले और बतानेवाले हैं । उनके ज्ञान में न्यूनता की कोई शंका ही नहीं रहती ।