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सूत्र संवेदना
करना चाहिए एवं गुरु जब “छंदेण” अर्थात् तुम्हारी जैसी इच्छा हो वैसा करो, ऐसा कहे, उसके पश्चात् ही गुरु को वंदन करना चाहिए ।
संसार में जिस प्रकार जिसके प्रति बहुमान भाव होता है, उसके शरीर आदि की चिंता सहज रहती है, उसी तरह जिस साधक को मोक्ष के प्रति अत्यंत आदर होता है, उसको मोक्षमार्ग के अनन्य कारणभूत संयम एवं संयमियों में भी उतना ही आदर होता है । इसीलिए संयमी के शरीर आदि की चिंता उसे सहज रहती है। साधक समझता है कि अपनी संयम की साधना में उत्तम संयमी प्रबल निमित्तभूत होते हैं। उनके शरीर की सुखकारी, उनके तप-संयम की साधना ही खुद की संयम साधना का प्रबल कारण बनता है । अपने तन, मन, धन के भोग से भी उत्तम संयमियों की रक्षा करना, साधक का परम कर्तव्य है एवं उसमें ही साधक का हित है । इसीलिए श्रावक या साधु को अपने से अधिक गुणसंपन्न गुरु से अनेक रीति से सुखशाता पूछना जरूरी है ।
गुरुवंदन की विधि बहुत विस्तृत है। यहाँ उसे पूर्णतया नहीं बताई है। जिज्ञासु वर्ग उसे गुरुवंदन भाष्य से जान लें ।
मूल सूत्र:
इच्छकार ! सुहराई / सुहदेवसि ?
१, सुखतप ?
शरीरनिराबाध ? सुख-संजम-जात्रा निर्वहो छो जी ? . स्वामी ! शाता छे जी ? . भात-पाणीनो लाभ देजो जी
संपदा
पद-
अक्षर-५२