SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री पंचिदिय सूत्र ८७ इससे अतिरिक्त ज्ञानाभ्यास एवं वैयावच्चादि कार्य भी गुण की प्राप्ति एवं वृद्धि के हेतु होने से वैसे कार्यों का समावेश भी उपलक्षण से इसी कारण में हो जाता है । अतः इन कारणों से भी मुनि को गमनागमन की अनुज्ञा है । २. विहार : एक स्थान पर रहने से क्षेत्र एवं उस क्षेत्र में रहनेवाले भक्त आदि के प्रति रागादि होने की संभावना रहती है एवं रागादि का बंधन जीव के दुःख का कारण है । इसलिए वायु की तरह, अप्रतिबद्ध रहनेवाले मुनि के लिए नवकल्पी विहार करने की भगवान की आज्ञा है । अतः मुनि एक गाँव से दूसरे गाँव विहार करते हैं । ३. आहार : मुनि को जिस शरीर से साधना करनी है, वह शरीर औदारिक है। औदारिक शरीर आहार के बिना नहीं टिकता । इसके अलावा, शुद्ध आहार संयमजीवन का कारण बनता है, इसलिए शुद्ध आहार एवं उपलक्षण से वस्त्र, पात्र, वसति आदि के लिए मुनि गमन-आगमन करते हैं । ४. निहार : औदारिक शरीर ही ऐसा है कि आहार ग्रहण करो तो निहार (त्याग) का कार्य करना पड़ता है । मल का त्याग कहीं भी करने से जीवहिंसा या लोक में संयम धर्म के प्रति अप्रीति होने की संभावना रहती है। इसलिए मल के विसर्जन के लिए मुनि योग्य स्थल की खोज के लिए भी गमन करते हैं । उपर्युक्त चार कारणों से जब मुनि को गमनागमन करना पड़े, तब वे ईर्यासमिति का पालन करते हुए चलते हैं । २. भाषा समिति : बोलने का प्रसंग आने पर मुनि उपयोगपूर्वक हितमित एवं पथ्य भाषा बोलते हैं, यह भाषा समिति है । मोक्षमार्ग के साधक मुनि मुख्यतया तो वचनगुप्ति में ही रहते हैं । तो भी अपनी भूमिका के मुताबिक तीन कारणों से वचन में प्रवृत्ति करते हैं । १. गुणवान आत्मा के गुणों की स्तवना के लिए : कहा है कि 'उत्तम के गुणगान से अपने में गुणों का प्रादुर्भाव (प्रगटन) होता है' (उत्तम ना गुण
SR No.006124
Book TitleSutra Samvedana Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy