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________________ __ जो केवलीप्ररुपित धर्म की रक्षा करता है, ज्ञान-दर्शन गुणों की वृद्धि करने वाले ऐसे देवद्रव्य की सुरक्षा करता है अर्थात् पूर्व संचित देवद्रव्य का सही स्थान में सदुपयोग तथा दानादि द्वारा नया संचित करके उसकी वृद्धि करता है वह धर्म की अतिशय भक्ति करने वाला होने से "तीर्थंकर'" पद पाता है। पंद्रह कर्मादान तथा अन्य निंदाजनक व्यापार जैसे कत्लखाना वगैरह चलाकर इत्यादि कार्यों से नहीं बल्कि न्याय मार्ग से ही देवद्रव्य की वृद्धि करनी चाहिए । कहा है कि मोहवश कोई - कोई अज्ञानी पुरुष जिनेश्वर भगवान की आज्ञा से विपरित मार्ग से देवद्रव्य की वृद्धि करे तो संसार समुद्र में डुबते हैं । मूल में जो साधारण द्रव्य हो उसे देवद्रव्य ठहराना भी गलत है। देवद्रव्य का उपयोग केवल जिनमंदिर के कार्यों में ही होता है । साधारण द्रव्य का उपयोग सर्व क्षेत्र में कर सकते हैं। इसलिए जिस समय जिस जिनमंदिर में जिस क्षेत्रों में धन की आवश्यकता हो उस क्षेत्र में उचित दान देना चाहिए। गृहस्थ को अपनी न्यायोपार्जित मिलकत में से शक्ति के अनुसार धर्म मार्ग में खर्च करना चाहिए। जो वार्षिक कमाई होती है, उसमें से सेंकडे पाँच, दस, बीस, पच्चीस, पचास टका जितना भाग धर्मादि खाते के लिए बाहर निकालना और जहाँ जितनी जरुरत हो वहाँ उसका उपयोग करना ।। देवद्रव्य का रक्षण हो और सही उपयोगिता हो उसका विशेष ध्यान रखना चाहिए उसमें ईमानदारी और सच्चाई होना जरुरी है। Honesty Is the Best Policy. अन्य स्थाने कृतं पापं धर्मस्थाने विनश्यति धर्म स्थाने कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति यानि अन्य स्थान (संसार में, दुकानादि में) किये हुए (चोरी आदि) पापों का सफाया धर्मस्थान (मंदिर-उपाश्रयादि) में होता है । परन्तु धर्मस्थान (मंदिर/उपाश्रयादि) में किये हुए (देवद्रव्यादि की चोरी आदि) पापों का सफाया कहीं नहीं हो पाता । वह आत्मा पर ऐसे चिपकते है, जैसे कपडे पर डामर । कपड़े पर चिपका डामर कपड़ा फटने तक नहीं निकलता वैसे धर्मस्थानादि पर किए गए देवद्रव्यादि के गड़बड़ घोटाले के पाप नरक आदि भवों में अनेक दुःख भोगने पर भी नहीं छूटते... ऐसे वज्रलेप जैसे पाप आत्मा पर चिपक जाते है । सावधान!!! हम भले अन्य स्थानों में सीधे नहीं रहते, परंतु धर्मस्थानों में तो सीधा रहना ही है । यहां अगर टेडे चलना-माया-कपटादि करना नहीं छोड़ा तो फिर भवों भव तक टेड़े चलने वाले ऐसे पशुआदि के अवतारों में जाना पडेगा, सीधे चलने वाले मानवों का अवतार कभी नहीं मिलेगा । अतः कम से कम धर्मक्षेत्र में सरल और सच्चे बनने का संकल्प करें ......
SR No.006120
Book TitleJain Tattva Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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