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________________ 12. विनय - विवेक A. देवद्रव्य विषयक सूचना देवद्रव्य अर्थात् जिन मंदिर संबंधित, जिन मूर्ति आदि भरवाने के लिए, चढावे के इत्यादि बोले गये रुपये = द्रव्य, वह देवद्रव्य है। इस रकम का ब्याज व्यवहार आदि से उपभोग करना, निजी कार्य में या अन्य किसी धार्मिक कार्य में देवद्रव्य का उपयोग करने से देवद्रव्य के भक्षण का दोष लगता है । मंदिरजी के निर्माण कार्य आदि के लिए लायी हुई ईंट-पत्थर, लकड़ियाँ आदि क भी अन्य कार्यों में उपभोग करने से देवद्रव्य के भक्षण का दोष लगता है। "श्रावक दिनकृत्य", "दर्शन शुद्धि" इत्यादि ग्रंथों में कहा है कि जो मूढमति श्रावक चैत्यद्रव्य (देवद्रव्य) का भक्षणादि करता है उसे धर्म का ज्ञान नहीं होता और वह नरक गति का आयुष्य बांधता है। साधुओं को भी देवद्रव्य आदि के फैलाव के लिए श्रावक को उपदेश देने का अधिकार है । भद्रिक जीव ने धर्मादिक के निमित्त पूर्व में दिया हुआ द्रव्य अथवा दूसरा देव द्रव्य नष्ट होता हो तो, साधुओं को भी अपनी सर्व उपदेश आदि शक्ति लगाकर उसका रक्षण करना/करवाना चाहिए । ऐसा करने से जिनाज्ञा की सम्यग् रीति से आराधना होती हैं। यदि कोई देवद्रव्य का हरण करता हो, गलत इस्तेमाल करता हो तो साधुओ को उसकी उपेक्षा (नजरअंदाज) नहीं करनी चाहिए, क्योंकि साधु सर्व सावद्य व्यापार से विमुक्त होकर भी यदि देवद्रव्य की उपेक्षा करें, तो वह अनंत संसारी बनता है, तो श्रावक की, जो सावध व्यापार से युक्त ही है उसकी तो, क्या बात करना? अर्थात् 1. देवद्रव्य खानेवाला 2. खानेवाले की उपेक्षा करने वाला 3. थोडे द्रव्य में होनेवाला कार्य अधिक द्रव्य में कराने वाला (खुद का बीच में कमीशन रखने वाला) 4. मतिमंदता आदि से देवद्रव्य का नाश करने वाला 5. विपरीत हिसाब लिखने वाला 6. देवद्रव्य की आवक में बाधा डालने वाला 7. बोली के रुपये न देनेवाला .... ऐसे जीव संसार में परिभ्रमण करते हैं । देवद्रव्य होने से ही जिन मंदिर की व्यवस्था सुन्दर रूप से चलती है और जिनमंदिर की व्यवस्था सुन्दर होने से ही हमेशा पूजा सत्कार होना संभव है । तथा जहां जिन मंदिर होता है वही मुनिराजों का भी विहार विचरण होता रहता है एवं उनके विचरण से जिनवाणी के उपदेश श्रवण का अवसर मिलता है और उससे ज्ञान-दर्शन आदि गुणों में वृद्धि होती है। 60
SR No.006120
Book TitleJain Tattva Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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