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________________ 13. सम्यग् ज्ञान A.आठ कर्म कर्म बंधन के विविध हेतु ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय कर्म बंध के कारण : 1. आचार्यादि गुरु भगवंतों का अविनय, 2.असमय में स्वाध्याय, 3.समय पर अध्ययन न करना, 4.अस्वाध्याय के समय में स्वाध्याय करना, 5.शास्त्र निषिद्ध (मनाही वाले) स्थान में बैठकर अध्ययन करना, 6.पुस्तक, स्लेट, कागज, कवर, टिकट पर थूक लगाना, 7.जूठे मुँह बात करना, 8.अशुचि=अशुद्ध अवस्था में बोलना, 9.जहाँ तहाँ पुस्तक रखना, 10.तकिये के रूप में पुस्तक का उपयोग करना, 11.पीठ पीछे पुस्तक रखना, 12.नीचे जमीन पर पुस्तक रखना 13. पुस्तक पास में रखकर पेशाब/लेट्रीन करना, 14.स्त्री के ऋतु धर्म = अंतराय ( 24 प्रहर=72 घंटे) के समय तीन दिन पुस्तक पढना, लिखना-स्पर्श करना, पत्र-पत्रिकाएँ पढना । 15. अखबार या पुस्तक के पृष्ठ में खाना, बूट चप्पल बाँधना, मिठाई मसाले की पुडिया बांधना, 16.पटाखे फोड़ना, 17.सर्वत्र ज्ञानियों पर प्रत्याघात करना, उनका अपमान करना, निंदा करना, 18.दर्शनगुण इन्द्रियधारक जीवों का नाश एवं दर्शनगुण के साधनभूत आँख, कान, नाक आदि इंद्रियों का नाश करना आदि से ज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय कर्मों का बंध होता है। शातावेदनीय कर्म बंध के कारण : 1.गुरु भक्ति, 2. मन से शुभ संकल्प, 3. हृदय से बहुमान, 4. वचन से स्तुति, 5. काया से सेवा, 6. क्षमा, 7. समभाव से सहन करना, 8. सभी जीवों पर करुणा, अणुव्रत/महाव्रतों का पालन, 9. साधु समाचारी रूप योग का पालन, 10. कषायविजय, 11. सुपात्र को भक्तिवश दान, 12. गरीबों को अनुकंपा दान, 13. डरपोक को अभयदान, 14. धर्मदृढता, 15. अकाम निर्जरा 16. व्रतादि में दोष लगने न देना, 17. बालतप, 18. दया 19. अज्ञान कष्ट सहन करना इत्यादि कारणों से शातावेदनीय कर्म का बंध होता है। अशाता वेदनीय कर्म बंध के कारण : सामान्य तौर पर यह शाता वेदनीय कर्म से सर्वथा विपरीत है। 1. गुरुओं की अवज्ञा करना, 2. क्रोधित होना, 3. कृपणता (कंजूसाइ), 4. निर्दयता, 5. धर्म कार्यों में प्रमाद, 6. पशुओं पर अधिक बोझ लादना, 7. उनके अवयवों को छेदना, 8. उन्हें पीटना, 9. खटमल, दीमक आदि का नाश करना, 10. जंतुनाशक दवाईयों का उपयोग करना, 11. स्वयं को या दूसरों को शोक, संताप, दु:ख आक्रंदन करना-करवाना, 12. आर्तध्यान, रौद्रध्यान, दूषित मन-वचन-काय योग आदि अशुभ परिणामो से अशातावेदनीय का बंध होता है । ___ दर्शन मोहनीय कर्म बंध के कारण :1. उन्मार्ग की देशना देना, 2. मार्ग का नाश करना, 3. देवद्रव्य का हरण करना, 4. तीर्थंकरों की निंदा, 5. सुसाधु-साध्वी की निंदा, 6. जिनमंदिर जिनबिंब की निंदा, 7. जिनशासन की अवहेलना, 8. निंदित कृत्य करना इत्यादि कारणों से दर्शन मोहनीय कर्म का बंध होता है।
SR No.006120
Book TitleJain Tattva Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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