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जंबुद्वीप का 1 हिमवंत+1 हैरण्यवंत+1 हरिवर्ष+1 रम्यक्वर्ष+ 1देवकुरु+1 उत्तरकुरू । __धातकी खंड के पूर्व एवं पश्चिम में स्थित 2 हिमवंत + 2 हैरण्यवंत + 2 हरिवर्ष + 2 रम्यक्वर्ष + 2 देवकुरु + 2 उत्तरकुरु एवं अर्धपुष्करवर द्वीप के भी धातकी खंड की भांति 2-2 अकर्मभूमियाँ, कुल 30 अकर्मभूमियाँ है । (6+12+12=30)
(3) अंतरद्वीप-अकर्मभूमि के सदृश ही यहाँ भी कार्यव्यवहार चलता है । ये कुल 56 क्षेत्र है । ये लवण समुद्र में रहे हिमवंत एवं शिखरी पर्वत के 8 सिरों पर प्रत्येक सिरे पर 7 क्षेत्र के अनुपात से 56 क्षेत्र
पर्याप्त-अपर्याप्त का विशेष स्वरूप पर्याप्ति-पुद्गलों की सहायता से उत्पन्न हुई आत्मा की शक्ति विशेष । यह पर्याप्ति छ: प्रकार की है। 1. आहार पर्याप्ति - आहार ग्रहण करके उसे रस और खल (कचरे) के रूप में परिवर्तित
करने की शक्ति । 2. शरीर पर्याप्ति - रस रूप में रहे हुए आहार में से सात धातुमय शरीर बनाने की शक्ति । 3. इन्द्रिय पर्याप्ति - सात धातु में से जिस जीव को जितनी इन्द्रियाँ है उतनी इन्द्रियाँ बनाने
की शक्ति । 4. श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति - श्वासोच्छ्वास वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके श्वासोच्छ्वास
रूप में परिणमन करने की शक्ति । 5. भाषा पर्याप्ति - भाषा वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके भाषा रूप में परिण मन करने की
शक्ति । 6. मन पर्याप्ति - मनो वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके मन के रूप में परिण मन करने की
शक्ति ।
स्वयोग्य पर्याप्तियाँ एकेन्द्रिय - इन्हें आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छवास ये चार पर्याप्तियाँ होती है। विकलेन्द्रिय (बेई.-तेई.-चउ.) असंज्ञि पंचेन्द्रिय – इन्हें मन सिवाय की पाँच पर्याप्तियाँ होती है । संज्ञि पंचेन्द्रिय (गर्भज मनुष्य, गर्भज तिर्यंच, देव, नारक) – इन्हें छ: पर्याप्तियाँ होती है । कोई भी जीव कम से कम तीन पर्याप्तियाँ पूरी किये बिना नहीं मरता है। परंतु आगे की स्वयोग्य पर्याप्तियाँ यदि पूर्ण करके मरें तो जीव पर्याप्त कहलाता है। यदि पूरी किये बिना मरे तो अपर्याप्त कहलाता है । जैसे कि पृथ्वी के जीव की स्वयोग्य पर्याप्ति चार है । यदि वह चारों पर्याप्तियाँ पूर्ण करके मरे तो पर्याप्त और चौथी अधूरी छोड़कर मरे तो अपर्याप्त कहलाता है ।
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