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________________ मनुष्य से लेकर वनस्पति वगैरह एकेन्द्रिय में आत्मतत्त्व की सिद्धि 1. मनुष्य में से आत्मा के चले जाने के बाद, उसे ग्लूकोस के बोतल या ऑक्सीजन आदि नहीं चढ़ते । क्यों कि आत्मा हो तब तक ही (यदि शरीर कोमा में चला जाए तो भी) ब्लड सर्युलेशन होता है । इसलिए आत्मा है यह सिद्ध होता है । 2. पशु, पक्ष, चींटी, मकोड़ा, मच्छर वगैरह में भी आत्मा है तब तक हलन-चलन, खाने या डंखने वगैरह की क्रिया करते हुए देखे जाते हैं। 3. (अ) पृथ्वी : पत्थर और धातुओं की खान में जो वृद्धि होती है, वह जीव बिना असंभवित (आ) पानी : कुआँ वगैरह में पानी ताजा रहता है और नया-नया आता रहता है जिससे पानी __ में जीव की सिद्धि होती है। (इ) अग्नि : तेल, हवा (ओक्सीजन), लकड़े आदि आहार से अग्नि जीवंत रहती है... अन्यथा बुझ जाती है । इससे अग्नि में जीव की सिद्धि होती है । (ई) वनस्पति - जीव हो तब तक सब्जी, फल वगैरह में ताजापन दिखता है । याद रखो : पृथ्वी, पानी वगैरह में जो जीव है वे तुम्हारे जैसे ही है और वे तुम्हारे माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी वगैरह बन चूके हैं । अब यदि तुम इन जीवों की जयणा नहीं पालोगे तो तुम्हें भी पृथ्वी, पानी वगैरह एकेन्द्रिय के भव में जाना पड़ेगा। प्रश्न: पृथ्वीकाय आदि जीवों को स्पर्श से वेदना होती है, वह क्यों नहीं दिखती ? उत्तर: गौतम स्वामी, महावीर स्वामी को आचारांग सूत्र में यह प्रश्न पूछते हैं । प्रभु जवाब देते हैं -कि किसी मनुष्य के हाथ-पैर काट दिये जायें, आँख और मुँह पर पट्टा बांध दिया जायें । फिर उस व्यक्ति पर लकड़ी से खूब प्रहार किया जाय तो वह मनुष्य अत्यंत वेदना से पीड़ित होता है । लेकिन उसे व्यक्त नहीं कर सकता । उसी प्रकार पृथ्वी, पानी वगैरह के जीवों को उससे कई गुणी अधिक वेदना अपने स्पर्श मात्र से होती है । लेकिन व्यक्त करने का साधन न होने से वे उन्हें व्यक्त नहीं कर सकते। जीवन में आचरने योग्य जयणा की समझ हम जैसे पैसों को संभालकर उपयोग में लेते हैं, जितने चाहिए उसी प्रमाण में व्यय करते हैं तो पैसों की संभाल या जयणा की गई कहलाती है । तो इस प्रकार हमें स्थावर जीवों की भी जयणा करनी चाहिए। चलते फिरते जीवों की रक्षा करने का तो सब धर्मों में कहा गया है परंतु जैन धर्म का जीव-विज्ञान - अलौकिक है। इसके प्ररूपक केवलज्ञानी-वीतराग प्रभु हैं । उन्होंने मनुष्य में जैसी आत्मा है वैसी ही , 55
SR No.006120
Book TitleJain Tattva Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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