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10. माता-पिता का उपकार
जिस माँ ने नव मास तक गर्भ में रखकर पाल पोषकर, गीले में से सूखे में सुलाया। ठंडी में हमें अपने आंचल में सुलाया, गरमी में शीतल पवन बन गयी। जिस पिता ने हमे विविध प्रकार की शिक्षा, विविध कलाओं में निपुण बनाने के लिए दिन-रात भाग दौड़ की। ऐसे माता पिता का हर पल जो संतानों के भविष्य संवारने में ही होता है। हमारे व्यवहारिक जीवन को सुखमय बनाने के लिए संपूर्ण ध्यान रखते है । मनुष्यत्व के योग्य बनाकर तैयार करने वाले माताा-पिता के उपकार का बदला ऐसा कौन कृतघ्नी निष्ठुर हृदय वाला होगा कि जो भूल जायेगा ?
बालकों को माता-पिता के वचनों का भी उल्लंघन नहीं करना चाहिए। उनके वचनों का मान रखकर पालन करना चाहिए । प्रायः आजकल देखने में आता है कि हर रोज माँ शाम 6.00 बजे हमें बुलाती है और खाना खाने को कहती है, ये बात हमारे दिमाग में जम जाती है। इसलिए फिर से जब माँ शाम को बुलाएगी तो हम तुरंत उनकी बात को काट देते है और कहते है कि "हाँ माँ, मुझे पता है आप खाने के लिए ही बुला रही हो', उनकी बात सुनी-अनसुनी कर देते हैं। जबकि उस वक्त माँ शायद कुछ ओर भी कहने आ सकती है।
बच्चे माता-पिता की बातों को सुनना भी पसंद नहीं करते हैं, चिड़ जाते है । और उनकी बात काटकर उन्हें चुप करा देते हैं। पर जिन माता-पिता ने ये जुबान दी, बोलना सीखाया, सोचने समझने की शक्ति दी, उन्हें कैसे नासमझ करार कर लेते हैं । बालको को अपने माता-पिता से सच्चा प्रेम रखना चाहिए । वे कैसे धर्मी एवं सुखी हो उसके लिए निरंतर ध्यान रखना । खाने-पीने, पहनने-ओढने, सोनेबैठने की व्यवस्था के साथ-साथ उनका जीवन धर्ममय बने वैसी उत्तम व्यवस्था करके देना ।
बड़ी उम्र के माता-पिता को विश्रांति, समाधि मिले वैसे बालक को करना चाहिए । उनके हृदय को थोडा भी दुःख न पहुंचे उसके लिए पूर्ण ध्यान रखना । उनकी सेवा में नौकर-चाकर तो भले ही रखना परन्तु खुद भी उनकी सेवा - चाकरी करना । वृद्ध, ग्लान और अशक्त माता-पिता की बारंबार संभाल लेना ।
सुबह उठकर उनको नमस्कार करना । कोई भी कार्य का प्रारंभ करने से पहले उनकी सलाह लेना और योग्य रीत से उसको स्वीकार करना - अमल में लाना ।
माता-पिता को तीर्थ यात्रा करने की इच्छा हो तो तीर्थयात्रा कराना । महापुरूषों का समागम करा और जीवन धर्म परायण बने वैसी अनुकूलता करके देना । माता-पिता की भक्ति के लिए कुछ उदाहरण ध्यान में रखने जैसे है:
1. गर्भ में आने के बाद श्री वीर प्रभु ने "मेरे हलन चलन से माता को पीडा न हो तो अच्छा है", इस आशय से थोडे समय के लिए गर्भ में स्थिर रहे थे ।
2. आदिनाथ भगवान ने केवलज्ञान प्राप्त करके सर्वप्रथम अपनी माता मरुदेवी को तारा था ।
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