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ही पूजा करने की प्रतिज्ञा है।
सेठ ने उसकी दृढता की प्रशंसा की । कई दिन बीत गए किंतु बरसात ज्यादा होने से नदी का पानी उतरा नहीं । सात दिन तक उसने उपवास किए उससे और निरंतर जिनेश्वर की पूजा के ध्यान की भावना से उसके क्लिष्ट कर्मों का क्षय हुआ । आठवें दिन नदी का पानी उतरने पर वह प्रभुजी की पूजा करने के लिए गया । झोंपड़ी के पास ही एक विकराल सिंह बैठा हुआ देखकर वह क्षणभर विचार में पड़ा किंतु प्रभुजी का मुख देखते ही, निर्भय होकर वह झोंपडी वाले मंदिर में पहुंच गया और प्रभुजी की दु:खी हृदय से स्तुती करने लगा।
हे प्रभु ! आपके दर्शन बिना मेरे सात-सात दिन निष्फल गए । आज का दिन और आज का पल धन्य है जिसके कारण मुझे आपके दर्शन हुए। देवपाल का सत्व तथा उसकी भक्ति देखकर प्रगट हुई बिंब की अधिष्ठायिका देवी ने उसकी प्रशंसा करके इच्छित माँगने को कहा, तब देवपाल ने कहा कि "हे देवी ! मेरे जीवन में एक ही माँगना है कि मुझे श्री जिनेश्वर भगवान की सेवा भक्ति अखंड रूप से प्राप्त हो । इसके सिवाय अन्य कुछ भी माँगना नहीं है।'' "देवपाल ! इसमें तुने क्या माँगा । मैं तो इस लोक के सुख तुझे देने के लिए आई हूँ । अत: दूसरा कुछ माँग ।" " देवी, मुझे इस लोक के सुखों की नहीं, लेकिन मोक्ष सुख के लिए यह प्रभु भक्ति की जरुरत है।" "देवपाल ! उसमें मेरी सहायता है ही, किंतु देव का दर्शन निष्फल नहीं जाता, जिससे मैं तुझे वरदान देती हूँ कि तू इस नगर का थोडे दिनों में राजा बनेगा, और मेरे योग्य कोई कार्य सेवा की आवश्यकता हो तो मुझे याद करना। मैं उपस्थित हो जाऊँगी ।" यह कहकर देवी अदृश्य हो गई। देवपाल पूजा करके भोजन के लिए घर आया, सेठ ने उसको खीर से पारणा करवाया।
सातवें दिन वहाँ के राजा की अचानक मृत्यु हो गई। उसके एक पुत्री के सिवाय कोई संतान न होने के कारण नए राजा की तलाश के लिए मंत्रियों द्वारा पंचदिव्य का आयोजन किया गया । मंगल कलश लेकर हथिनी पूरे शहर में घूमकर जंगल में पहुंची तथा वहाँ ढोरों को चरा रहे देवपाल पर अभिषेक किया।
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